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प्रवचन-९६ मिथ्या मे दुष्कृतम् :
चार महीनों से 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ पर प्रवचन दे रहा हूँ। परमात्मा की आज्ञा है कि परिश्रम की परवाह किये बिना धर्मोपदेश देना चाहिए | धर्मोपदेशक को एकान्ततः लाभ है, कर्मनिर्जरा का और पुण्यबंध का | फिर भी मैं छद्मस्थ हूँ, मेरी बुद्धि अल्प है, ज्ञान भी नहींवत् है.... इसलिए यदि जिनवचनों से कुछ भी विपरीत कथन हो गया हो तो मिच्छामि दुक्कडं । प्रमाद है, अज्ञान है... तब तक गलती हो जाना संभवित है.... इसलिए ग्रन्थकार से भी क्षमायाचना कर लेता हूँ| ग्रन्थकार के आशय से कुछ भी विपरीत कथन किया गया हो तो उसका मिच्छामि दुक्कडं। ___ आप लोगों के सामने हितदृष्टि से, करुणा-भावना से प्रेरित होकर ये प्रवचन दिये हैं। कभी जानते-अनजानते, आपको दुःख हुआ हो वैसे शब्द बोले गये हों, किसी के हृदय को पीड़ा पहुँची हो.... तो उसका भी मिच्छामि दुक्कडं । आप सभी मुझे क्षमा प्रदान करेंगे। मंगल प्रार्थना
शिवमस्तु सर्व जगतः, परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखीभवतु लोकः ।।
सकल विश्व का जयमंगल हो
ऐसी भावना बनी रहे। अमित परहित करने को मन
सदैव तत्पर बना रहे। सब जीवों के दोष दूर हों, पवित्र कामना उर उलसे, सुख-शान्ति सब जीवों को हो प्रसन्नता जनमन विलसे....
।। संपूर्ण ।।
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