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प्रवचन-९६
__२४९ बातें हैं | एक बार सुनने मात्र से काम नहीं बनता है। बार-बार परिशीलन होना चाहिए इन बातों का। इसलिए ये सारे प्रवचन 'अरिहंत' में प्रकाशित हो रहे हैं। ताकि मनुष्य बार-बार इन प्रवचनों को पढ़ सके और चिंतन-मनन कर सके। ___ 'धर्मबिन्दु' के प्रथम अध्याय की प्रवचन-श्रेणी आज पूर्ण करता हूँ। आज यह उपसंहार का प्रवचन है। मुझे आपसे कहना है कि आप इन प्रवचनों का पुनः पुनः अध्ययन करना । आपके परिवार में दूसरे भी पढ़े-लिखें भाई-बहिनों को ये प्रवचन पढ़ने की प्रेरणा देना । परिवार को अनुकूल बनाने से सामान्य धर्मों का पालन सरल बनेगा। परिवार के सदस्यों को भी लगना चाहिए कि गृहस्थ जीवन को सुखमय और शान्तिमय बनाने के लिए इन सामान्य धर्मों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। आपके मित्रों को, स्नेही-स्वजनों को भी प्रवचन पढ़ने की प्रेरणा देना। करे उसका भी भला, न करे उसका भी भला :
सभा में से : प्रेरणा देंगे, परंतु सामान्य धर्मों का पालन करना मुश्किल तो जरूर लगता है।
महाराजश्री : 'पालन करने जैसा है, ऐसा तो हृदय में लगता है न?
सभा में से : अवश्य | पालन करने जैसा है और कुछ धर्मों का पालन करना शुरू भी कर दिया है हम कुछ मित्रों ने | परंतु घर के लोगों को......
महाराजश्री : घर के लोग भी धीरे-धीरे समझेंगे। प्रेम से समझाते रहों। अवसर-अवसर पर प्रेरणा देते रहो। जब उन लोगों को इन धर्मों के पालन में फायदा लगेगा तब वे भी पालन करने लगेंगे। अथवा इन धर्मों का पालन नहीं करने से नुकसान होता है, ऐसा समझेंगे तब पालन करेंगे। नहीं भी करें पालन, तो उनके प्रति 'भावदया' रखना। उनके प्रति रोष नहीं करना । गुस्सा नहीं करना । प्रेरणा देना आपका कर्तव्य है, कर्तव्य का पालन कर दिया कि बस, आपका काम पूरा हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी भीतरी योग्यता के अनुसार ही ग्रहण करता है और त्याग करता है।
मैं भी आपको प्रेरणा ही देता हूँ न? क्या जितने लोग सुनते हैं वे सभी क्या इन बातों को ग्रहण करते हैं? इन बातों का पालन करते हैं? नहीं न? तो क्या हमें गुस्सा करना चाहिए? नहीं, मात्र भावदया का चिंतन करते हैं।
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