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प्रवचन-९२ __महाराजश्री : निःशंक होना ही चाहिए। सत्य शंकारहित होना चाहिए। बुद्धि का पाँचवा गुण है विज्ञान । विशिष्ट ज्ञान को विज्ञान कहते हैं | ज्ञान जब विशिष्ट बनता है तब उसमें शंका नहीं रहती है। विज्ञान निःशंक ही होता है। शंका भी जरूरी, समाधान भी :
शंकाओं को दूर करने के लिए ही 'ऊह' और 'अपोह' बताये हैं। 'ऊह' और 'अपोह' भी बुद्धि के गुण हैं। 'ऊह' सामान्य ज्ञान करवाता है, 'अपोह' विशेष ज्ञान करवाता है। यानी 'ऊह' सामान्य चिंतन को कहते हैं, 'अपोह' विशेष चिंतन को कहते हैं।
अभी 'अहिंसा' के विषय में जो चिंतन किया गया, वह 'ऊह' है! 'अपोह' में तो सूक्ष्मता में, गहराई में जाकर चिंतन करने का होता है। चिंतन के माध्यम होते हैं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य | द्रव्य, गुण और पर्याय | कर्मबन्ध, कर्ममुक्ति.... वगैरह।
जैसे कि : एक जीव की हिंसा हुई... तो क्या हुआ? सामान्य बुद्धिवाला कहेगा : 'वह मर गया!' बस, इतना ही कहेगा। जब कि विशिष्ट बुद्धिवाला कहेगा, उस जीव का एक पर्याय नष्ट हुआ, आत्मा कायम रही और वह आत्मा नया शरीर धारण करेगी। आत्मा द्रव्य है, शरीर पर्याय है! आत्मा ध्रुव है, शाश्वत् है । आत्मा के पर्याय अध्रुव हैं, विनाशी हैं। आत्मा के गुण दो प्रकार के होते हैं : स्वाभाविक और वैभाविक । स्वाभाविक गुण कभी नष्ट नहीं होते हैं। वैभाविक गुण कर्मों के नाश होने के साथ नष्ट हो जाते हैं।
आत्मा के पर्यायों का ही मात्र विचार करने से राग-द्वेष पैदा होते हैं। 'द्रव्य' का चिंतन करने से ही मध्यस्थ-भाव आता है। द्रव्य है विशुद्ध आत्मा । जो कभी उत्पन्न नहीं हुई है, न कभी मरनेवाली है। वैसे जो पुद्गगल द्रव्य हैं, द्रव्यरूप में शाश्वत् हैं, पर्यायदृष्टि से उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं।
सभा में से : हम लोग तो द्रव्य, पर्याय वगैरह कुछ जानते ही नहीं!
महाराजश्री : जानोगे कैसे? अध्ययन ही नहीं किया है तत्त्वज्ञान का। कॉलेज की डिग्रियाँ ले लेना अलग बात है और तत्त्वज्ञान पाना दूसरी बात है। द्रव्य, गुण पर्याय-यह तत्त्वज्ञान का विषय है। उत्पत्ति-स्थिति और व्यय (नाश) यह तत्त्वज्ञान का विषय है। वैसे कर्मबंध और मोक्ष - यह भी तत्त्वज्ञान का विषय है।
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