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प्रवचन-९० गुणों की हमेशा सराहना करो : __जो गुण आप में नहीं हैं, दूसरों में हैं, आप उनकी प्रशंसा करें। जैसे कोई निर्बल मनुष्य है, दूसरे बलवान पुरुष को देखता है तो उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहता है। जैसे कोई निर्धन मनुष्य है, दूसरे धनवान पुरुष को देखता है तो उसकी प्रशंसा करता ही है। वैसे, आप में कोई विशेष गुण नहीं है, परन्तु दूसरे मनुष्य में आप देखते हैं तो आपको गुण और गुणवान् की प्रशंसा करनी ही चाहिए।
यह प्रशंसा तब होगी, यदि आपकी गुणवान होने की प्रबल इच्छा है। गुण आपको प्यारे लगते हैं! आप में गुण हैं या नहीं हैं - यह बात महत्त्व की नहीं है, आपके मन में गुणों के प्रति अनुराग होना, महत्त्व की बात है। रावण का गुणानुराग :
रेवा नदी के किनारे पर रावण और राजा सहस्रकिरण का भयानक युद्ध हुआ। सहस्रकिरण पर रावण ने विजय पायी, परन्तु युद्ध में सहस्रकिरण का अद्भुत पराक्रम देखकर रावण मुग्ध हो गया था। सहस्रकिरण को उसने बंदी बनाया था। परन्तु जब आकाश-मार्ग से एक महामुनि रावण की छावनी में पधारे और रावण को मालूम हुआ कि ये महामुनि सहस्रकिरण के पिता हैं, तब रावण ने तुरन्त ही सहस्रकिरण को बंधनमुक्त कर दिया और राजसभा में सहस्रकिरण के पराक्रम की प्रशंसा की। सहस्रकिरण को अपना भाई बना कर, उसको उसका राज्य वापस लौटाने की घोषणा की और सहस्रकिरण से कहा : 'तू मेरा लघु बंधु है, और भी राज्य मांग ले, तू जो राज्य मांगेगा, मैं तुझे अवश्य दूंगा।'
उस समय सहस्रकिरण ने कहा : 'लंकापति! अब मुझे राज्य से कोई लगाव नहीं है। राज्य-संपत्ति का कोई मोह नहीं है। मेरा मन संसार के सुखवैभवों से विरक्त बना है। मेरे ही भाग्ययोग से ये पूजनीय महामुनि यहाँ पधारे हैं। मैं उनके चरणों में जीवन समर्पित करूँगा.... श्रमण बनकर आत्मकल्याण की साधना करूँगा। कर्म-बन्धनों को तोड़ने का पुरुषार्थ करूँगा।'
रावण, सहस्रकिरण की वैराग्यपूर्ण वाणी सुनकर स्तब्ध रह गया । सहस्रकिरण के त्याग-वैराग्य ने रावण के हृदय को गद्गद् कर दिया। रावण की आँखों में हर्ष के आँसू उभरने लगे। उसने भावपूर्वक सहस्रकिरण के गुणों की प्रशंसा की। सहस्रकिरण ने वहीं पर अपने पिता-मुनिराज के चरणों से श्रमणत्व अंगीकार कर लिया।
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