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प्रवचन-९०
१७८ झगड़े हो सकते हैं? द्वेष...बैर..ईर्ष्या... हो सकती है? परन्तु यह सब होता है न? क्यों होता है - यह कभी गंभीरता से सोचा है? नहीं सोचा है। मूल कारण यही है - गुणों की उपेक्षा । गुणदर्शन करना नहीं, गुणपक्षपात करना नहीं। आप लोगों ने महत्त्व दिया है दोषों को। हम दोषों को बढ़ावा देते हैं या नहीं, सोचना । कुछ लोग दोषों को बढ़ावा देते हुए भी स्वयं नहीं जान पाते कि 'मैं दोषों को बढ़ावा दे रहा हूँ।' कुछ घटनाओं को लेकर यह बात स्पष्ट करता हूँबुराई को बढ़ावा मत दो :
० एक लड़का अपने पड़ोसी के घर में आता-जाता था। पड़ोसी अच्छा था। लड़के के प्रति ममता थी । एक दिन पड़ोसी बाहर गये हुए थे, घर खुला छोड़कर गये थे। लड़का उस घर में बैठकर कभी-कभी पढ़ाई भी करता था। लड़के ने घर में शक्कर का थैला पड़ा हुआ देखा | उसकी बुद्धि बिगड़ी | थैले में से शक्कर उठाकर वह अपने घर ले गया। आधा थैला खाली कर दिया । लड़के ने अपने पिता को बात बतायी। पिता ने लड़के को शाबाशी दी। लड़के को चोरी करने में प्रोत्साहन मिला। पिता को खयाल नहीं आया कि 'मैं चोरी के दोष को बढ़ावा दे रहा हूँ।'
० एक पुत्रवधू हमेशा पड़ोस की औरतों के पास जाकर अपनी सास की निन्दा करती थी। पड़ोस की औरतें बड़ी चाव से सुनती थीं और पुत्रवधू को सास के विरुद्ध उत्तेजित करती थीं। एक दिन पुत्रवधू ने सास के साथ झगड़ा कर दिया। गालियाँ बकने लगी। इतने में उसका पति घर पर आया। उसने अपनी पत्नी को डांटा, मारा और घर से निकाल दिया.....। पड़ोस की औरतें देखती रही.....किसी ने उसको आश्रय नहीं दिया। उन औरतों को यह भी महसूस नहीं हुआ कि 'हमने दोषों को बढ़ावा देकर एक औरत की जिंदगी बरबाद कर दी।'
० एक परिवार में पति-पत्नी के बीच मनमुटाव हो गया था। आपस में झगड़ा भी होता रहता था। घर में एक ही संतान थी। ७/८ वर्ष का लड़का था। माता लड़के को उसके पिता के विरुद्ध भड़काया करती थी। लड़का पिता का कहा नहीं मानता था। ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, पिता के सामने औद्धत्यपूर्ण व्यवहार करने लगा। माँ उसको बढ़ावा देती रही। परिणाम यह आया कि पिता घर का त्याग कर अन्यत्र चला गया। घर में जो भी थोड़ी
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