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प्रवचन-८९ नौकरानी मेरे पास आयी और सोने का दो सौ ग्राम का हार मेरे सामने रख दिया! उसने कहा : 'महाराज साहब, कोई लुगाई अठे आंबिल करने आयी होगी... हार उतार ने पास में रखियो होसी...बाया चली गई...हार उठे ही पडियो थो...मैं आपरे पास लायी हूँ... मारे तो अनीति रो धन मिट्टी बरोबर है...जिनो वे, उने आप दे देसी...।' मैं तो उस नौकरानी को देखता ही रह गया! मेरा हृदय हर्ष से गद्गद् हो गया...।
नौकरानी गरीब थी परन्तु उसमें लोभ-तृष्णा नहीं थी! अन्यथा दो सौ ग्राम सोने का हार हाथ लगने पर वह त्याग नहीं करती। हार का मालिक मिल गया, हार उसको दे दिया गया...जब उसने नौकरानी की नीतिमत्ता जानी, वह भी हर्षविभोर हो गया। नौकरानी को बक्षिस दी और नौकरानी की प्रशंसा होने लगी। अभी भी प्रामाणिकता जिंदा है :
अहमदाबाद की एक सच्ची घटना है। एक सज्जन बस में जा रहे थे! अपना पाकिट हाथ में था। बस में से उतरते समय वे अपना पाकिट बस की सीट पर ही भूल गये थे। घर पहुंचने पर खयाल आया। बस डिपो में तलाश की, पाकिट नहीं मिला। अखबार में विज्ञापन दिया...परन्तु पाकिट नहीं मिला। वे निराश हो गये। पाकिट में करीबन १४०० रुपये थे और कुछ आवश्यक कागजात थे।
कुछ दिनों के बाद एक सज्जन उनके घर आये। उन्होंने अपनी बेग में से पाकिट निकाला और कहा : 'क्या यही आपका पाकिट है? देख लीजिए...आपके रुपये और कागजात सुरक्षित हैं।'
पाकिट देखकर पहले तो वे सज्जन स्तब्ध रह गये। पाकिट खोल कर देखा तो रुपये और कागजात बराबर थे। उन्होंने पाकिट देने वाले भाई का उपकार माना और पूछा : 'आपको यह पाकिट कहाँ से मिला?'
उस भाई ने कहा : 'आप बस में जहाँ बैठे थे, मैं भी पास में ही बैठा था। आप पाकिट भूल गये, बस से उतर गये...कि मैंने वह पाकिट ले लिया! जेब में रख दिया । घर जाकर पाकिट खोल कर देखा...मेरा मन ललचा गया । मैंने पाकिट अलमारी में रख दिया।
परन्तु एक दिन मेरी पाँच रुपये की नोट खो गई घर में | मैंने खोजी...परन्तु नहीं मिली। मैं निराश होकर बैठा था, कि मेरा नौकर मेरे पास आया और
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