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प्रवचन-८८ सुलसा को बता दी और कहा : 'जब तक राजकुमार को ऋषिदत्ता के प्रति प्रगाढ़ प्रीति है तब तक वह मेरे साथ शादी नहीं करेगा। ऋषिदत्ता से उसकी प्रीति टूट जाय... वैसा करना चाहिए।' सुलसा को अनेक प्रलोभन देकर, ऋषिदत्ता को कलंकित करने को भेज दी। सुलसा ने अपनी मंत्रशक्ति से, प्रतिदिन नगर में एक-एक मनुष्य की हत्या करना शुरू किया और दूसरी तरफ ऋषिदत्ता का मुँह खून से रंगने लगी। उसके तकिये के पास मांस के टुकड़े रखने लगी । वह ऐसा सिद्ध करना चाहती थी कि 'ऋषिदत्ता रोजाना एक मनुष्य की हत्या कर उसका मांस खाती है और खून पीती है। ऋषिकन्या राक्षसी है।'
उसका षड्यंत्र सफल हुआ। राजकुमार कनकरथ ने तो समझ लिया था कि ऋषिदत्ता को बदनाम करने का कोई दैवी प्रयोग हो रहा है। ऋषिदत्ता जो कि जमीनकंद भी नहीं खाती है, रात्रिभोजन नहीं करती है, वह मांसाहार कभी नहीं कर सकती। उसकी संपूर्ण निर्दोषता उसकी आँखों में दिखती है।
परन्तु राजा हेमरथ ने गुप्तचरों के द्वारा तलाश करवाई और ऋषिदत्ता का मुँह खून से सना हुआ देखा...तकिये के पास मांस के टुकड़े देखे...उन्होंने ऋषिदत्ता को राक्षसी कहकर जल्लादों को सौंप दिया। सारे नगर में ऋषिदत्ता को राक्षसी बनाकर घुमायी गई और जल्लाद उसको श्मशान में ले गये। हालाँकि जल्लादों ने उसका वध नहीं किया, वह बच गयी। परन्तु एक बार रुक्मिणी का षड्यंत्र सफल हो गया । जब सुलसा जोगन ने जाकर रुक्मिणी को सफलता के समाचार दिये होंगे...तब उसको कितनी खुशी हुई होगी? यह है अभिनिवेश।
बाद में रुक्मिणी के साथ राजकुमार की शादी भी हुई, परन्तु रुक्मिणी के मुँह से ही सारा षड्यंत्र खुला हो गया। राजकुमार ने उसको धुत्कार दिया
और स्वयं अग्निस्नान करने तैयार हो गया। उस समय योगी के वेश में रही हुई ऋषिदत्ता प्रगट हुई और उसने राजकुमार को समझाकर रुक्मिणी को क्षमा प्रदान करवायी। ऋषिदत्ता के मन में कोई अभिनिवेश नहीं था। स्वयं ऋषिदत्ता ने रुक्मिणी को क्षमा कर दिया और अपनी बहन बनाकर साथ ले लिया। रुक्मिणी ऋषिदत्ता की उदारता देखकर, क्षमाशीलता देखकर चकित रह गई और उसके प्रति अपार कृतज्ञभाव व्यक्त करने लगी।
ऋषिदत्ता की कहानी आप लोग अवश्य पढ़ें। हिन्दी और गुजराती भाषा में वह छप भी गई है। 'नैन बहे दिन रैन' पुस्तक का नाम है। हर स्त्री को वह कहानी पढ़ने जैसी है।
दूसरे लोग जो कि निर्दोष होते हैं, निरपराधी होते हैं, उनका पराभव करने
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