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प्रवचन-८४
११८ ___ 'उस समय कौन-सी दवाई लेने से तुझे ठीक हो जाता था, वह दवाई का नाम बता दे तो मैं वह दवाई ले आऊँ ।'
पुत्रवधू मौन रही। सेठ ने दूसरी बार पूछा तो संकोच के साथ उसने कहा : 'पिताजी, वह दवाई आप से नहीं हो सकेगी। वह तो मेरे पिताजी ही कर सकते हैं...।'
'ऐसी कौन-सी दवाई है रे? नाम तो बता दे... मुझ से नहीं हो सकेगी तो तेरे पिताजी के वहाँ से मँगवा दूंगा...।' __ 'सच्चे मोतियों का विलेपन बनाकर सर पर लगाते थे... तो तुरन्त मेरा दर्द मिट जाता था।' ___ 'ओ हो...इसमें क्या है? मैं सच्चे मोतियों का विलेपन अभी तैयार करता हूँ।' सेठ ने तिजोरी में से सच्चे मोती निकाले और पुत्रवधू के पास लाकर जब तोड़ने को तैयार हुए... कि तुरन्त पुत्रवधू ने कहा : 'बस, पिताजी रहने दीजिए। अब मेरा सरदर्द मिट गया है।'
सेठ तो पुत्रवधू की बात सुनकर स्तब्ध से रह गये । 'एकदम कैसे सरदर्द मिट गया?' ___ पुत्रवधू ने कहा : 'पिताजी, मुझे क्षमा कर देना । मुझे सरदर्द था ही नहीं.. मुझे तो आपके मन को जानना था... कि आपकी उदारता कैसी है? जब मैंने आपको जमीन पर पड़े हुए तैल के बिन्दुओं को लेकर जूते पर लगाते हुए देखा था... मेरे मन में आपके विषय में दुविधा पैदा हो गई थी। परन्तु आज मेरी दुविधा मिट गई। आप कंजूस नहीं हैं... परन्तु दुर्व्यय भी आपको पसंद नहीं है। आप समय को परखनेवाले हैं। आपने मेरे स्वास्थ्य के लिए मूल्यवान मोतियों की भी परवाह नहीं की...| आप कालोचित व्यय करनेवाले हैं।'
सेठ के मुँह पर मुस्कुराहट छा गई। उन्होंने कहा : 'बेटी, गृहस्थ जीवन में यह आवश्यक होता है कि दुर्व्यय एक पैसे का भी नहीं करना चाहिए और सद्व्यय करने के अवसर पर लाखों रुपये खर्च कर देने चाहिए | गृहस्थ जीवन की शोभा इसी से बढ़ती है।' सद्व्यय करना सीखें :
करीबन ३५/३६ साल पहले की एक बात कहता हूँ। बंबई में एक श्रीमन्त सद्गृहस्थ रहते थे। मात्र दो कमरे में रहते थे। एक दिन उन्होंने जैन बोर्डिंग
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