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प्रवचन- ८३
११२
करना है तो आप में हिम्मत - सत्व होना नितान्त आवश्यक है । संकट तो आयेंगे ही, विघ्न आते रहेंगे। परन्तु उन संकटों का साहस के साथ सूझ-बूझ द्वारा मुकाबला करना पड़ेगा ।
ज्यादातर संकट स्वाभाविक नहीं होते हैं, स्व-उपार्जित होते हैं । असंयम से रोग, असन्तुलन से विग्रह, अपव्यय से दरिद्रता, असभ्यता से तिरस्कार, अस्तव्यस्तता से विपन्नता के घटाटोप खड़े होते हैं। अपनी नासमझी और अपनी कुसंस्कारिता ही संकटों की जननी है । अपन अपने पूर्वजन्म के पापकर्मों को उत्तरदायी मानकर, उस नासमझी को पनपाते हैं। अपनी कुसंस्कारिता की वृद्धि करते जाते हैं ।
मनःस्थिति को बदलना होगा। मनःस्थिति बदलेगी तो परिस्थिति स्वतः बदल जायेगी। पापकर्मों के उदय से कभी संकट पैदा होते हैं, परन्तु कभी कभी। आमतौर से देखा जाय तो द्रष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार में घुसी हुई नासमझी ही विभिन्न स्तर के संकटों के लिए उत्तरदायी होती है।
ऐसे विकृत मस्तिष्क को उलट देने के लिए और दैवी चिन्तन को प्रस्थापित करने का सामर्थ्य प्राप्त करना चाहिए । सामान्य साधनों से यह काम नहीं हो सकता। नरक जैसी विपन्नताओं को स्वर्गोपम सुसम्पन्नता में बदलने के लिए कितनी सात्विकता चाहिए, कितना मनोबल चाहिए? यह कहाँ से मिलेगा ? सिवाय परमात्म-शरणागति, दूसरा कोई उपाय नहीं दिखता है। इसलिए निराश नहीं होना है । अन्धकार कितना ही सघन क्यों न हो, प्रकाश उससे बड़ा है। जब सूर्य उगता है तब रात्रि के पलायन होने में देर नहीं लगती है, भले ही वह कितनी ही काली और डरावनी क्यों न हो।
'मुझे तीनों पुरुषार्थ करने हैं और धर्म-अर्थ एवं काम में वृद्धि करनी है । ' यह संकल्प करना चाहिए ।
क्या अर्थ- काम की वृद्धि उचित है ? :
सभा में से : धर्मवृद्धि करने का संकल्प तो अच्छा है, वृद्धि करने का संकल्प क्या उचित है?
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परन्तु
अर्थ-काम में
महाराजश्री : आप गृहस्थ हैं, यह बात मत भूलो। अर्थ- काम में आसक्ति नहीं बाँधना, यह तो अनिवार्य बात है, परन्तु अर्थ - काम में वृद्धि करना तो कर्तव्य है। चूँकि आप अकेले नहीं हैं, परिवार है। परिवार की दृष्टि से भी सोचना आवश्यक होता है। धर्मशासन की प्रभावना करने की दृष्टि से भी सोचना आवश्यक है। विश्व में जैनसंघ की गरिमा की दृष्टि से भी सोचना