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प्रवचन-८१
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० यदि कामपुरुषार्थ और अर्थपुरुषार्थ को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, परन्तु धर्मपुरुषार्थ को नहीं छोड़ना ।
कितना अच्छा मार्गदर्शन दिया है करुणावंत आचार्यदेव ने! कामपुरुषार्थ को छोड़कर यदि अर्थपुरुषार्थ और धर्मपुरुषार्थ को बचाये जा सकते हों तो बचा लेना। अर्थ और धर्म होगा तो वैषयिक सुख पुनः भी प्राप्त हो सकेंगे। इसी दृष्टि से तो आप लोग परिवार को राजस्थान में छोड़कर या गुजरात में छोड़कर यहाँ आये थे न? यहाँ आकर रुपये कमाये, घर बसाया...तो परिवार को यहाँ ले आये | धर्म को नहीं छोड़ा तो यहाँ पर भी जिनमंदिर, उपाश्रय वगैरह धर्मस्थानों का निर्माण किया और यथाशक्ति धर्माराधना भी करते हो।
यदि परिवार के मोह में, वतन में ही रहते...वहाँ अर्थोपार्जन का मार्ग नहीं होता, तो क्या होता? दरिद्रता ही होती न? दरिद्रता में कामसुख भी नहीं मिलता और धर्मपुरुषार्थ भी नहीं होता।
इसलिए ग्रन्थकार ने कहा कि भोगसुख छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, परन्तु अर्थपुरुषार्थ और धर्मपुरुषार्थ नहीं छोड़ना।
कभी काम और अर्थ दोनों को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना, परन्तु धर्म को नहीं छोड़ना | चूँकि काम और अर्थ का मूल धर्म होगा तो पुनः अर्थप्राप्ति होगी, भोगसुखों की प्राप्ति होगी।
धर्मश्चेन्नावसीदेत कपालेनापि जीवतः।
आढ्योऽस्मीत्यवगंतव्यं धर्मवित्ता हि साधवः ।। ० मनुष्य कभी हाथ में नारियल की खोपड़ी लेकर भिक्षा मांगता है, परन्तु यदि उनके हृदय में धर्म है तो दुःखी नहीं होता है। वह तो मानता है, 'मैं धनवान् हूँ| चूंकि सज्जन पुरुष धर्म-धनवाले होते हैं।' __ किसी भी हालत में धर्म का त्याग नहीं करने का उपदेश ज्ञानी पुरुषों ने दिया है। तीन पुरुषार्थ को जीवन में कैसे जीना इस विषय का पर्याप्त विवेचन किया गया है। आप लोग वैसा जीवन जीने का प्रयत्न करते रहें, यही मंगल कामना करता हूँ।
आज बस, इतना ही।
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