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प्रवचन-५० ० न सुनने जैसी बातें सुननी पड़े, तब रसपूर्वक सुनो नहीं। ऐसी बातें कम
से कम सुनो। ० सद्गुरुओं के पास जाकर विनयपूर्वक धर्मोपदेश सुनते रहो। ० कल्याणमित्रों की तत्त्वचर्चा सुनते रहो। ० प्रभुभक्ति के गीत सुनते रहो। ० सज्जनों का गुणानुवाद सुनते रहो। ० महापुरूषों के जीवनचरित्र सुनते रहो। ० अपनी निन्दा सुनते समय क्रोधशत्रु अपने पर विजय न पा ले, इसलिए
सावधान रहो। ० जो सुनने योग्य हो, उसे बड़ी एकाग्रता से सुनो। ० दूसरों का अवर्णवाद करनेवाले लोगों की मित्रता मत रखो। इतना
विवेक यदि आ जाय तो श्रवणेन्द्रिय पर विजय अवश्य पा सकोगे। चक्षुरिन्द्रिय-विजय :
आँखें मिली हैं, तो देखना स्वाभाविक है। परन्तु एक बात ध्यान में रखना कि दुनिया में सब कुछ देखने योग्य नहीं होता है। क्या देखना और क्या नहीं देखना, इसका निर्णय करने का विवेक चाहिए। जो देखने से पाप-विचार आये, वह नहीं देखना चाहिए और जो देखने से अच्छे पवित्र विचार आये, वही देखना चाहिए। आज के युग में देखने के स्थान बहुत बढ़ गये हैं। सिनेमा, नाटक और टीवी - ये तीन वस्तु विश्व में व्यापक बन गई हैं...सर्वत्र फैल गई हैं ये तीन बातें। क्या इन तीन वस्तुओं से आप मुक्त हो सकते हो? इन्हें देखने में आँखों का दुरुपयोग ही है। सिनेमा आदि देखने से आन्तरिक शत्रु उत्तेजित होते हैं और इन्द्रियाँ चंचल बनती हैं। ___ आँखों का काम जैसे देखने का है, वैसे पढ़ने का भी है। क्या पढ़ना और क्या नहीं पढ़ना, उसका विवेक बहुत आवश्यक है। नहीं पढ़ने योग्य पत्रिकाएँ और अखबार भी काफी छप रहे हैं। पढ़ने योग्य साहित्य भी ठीक मात्रा में छप रहा है। परन्तु सामान्य जनता नहीं पढ़ने योग्य ही ज्यादा पढ़ती है। जातीय वृत्तियों को उत्तेजित करनेवाला और हिंसा वगैरह अनिष्टों को बढ़ावा देनेवाला साहित्य बहुत फैल रहा है, क्योंकि लोगों की अभिरूचि कुछ वैसी ही बन गई है। यदि आप लोगों को आन्तरिक शत्रु पर विजय पाना है और इन्द्रियों पर
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