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प्रवचन-७२
२६४ काम की कि आप रोगाक्रान्त दशा में भी भोजन नहीं छोड़ सकें? ऐसी गुलामी नहीं चाहिए, ऐसी कमजोरी को मिटा देना चाहिए | 'मुझसे तो उपवास नहीं होता है....मुझे तो चाय-दूध के बिना नहीं चल सकता है। दवाई ले लेंगे, अजीर्ण मिट जायेगा....।' ऐसी विचारधारा पैदा होती है निर्बल मन में से।
अजीर्ण में कई डॉक्टर भी भोजन का त्याग करने को नहीं कहते हैं। डॉक्टर भी तो दर्दी की इच्छा को मान देते हैं न? वे तो कहेंगे : 'जो खाने की इच्छा हो वह खाना.... बस, मेरी दवाई चालू रखना।' डॉक्टरी अब 'सेवा' नहीं रही है, 'बिजनेस'-व्यापार हो गया है। दर्दी की बीमारी जितनी लंबी चले, डॉक्टर को अच्छी 'इन्कम' होती रहती है न? हाँ, कोई आदर्शवादी डॉक्टर होगा.... तो अवश्य कहेगा कि 'आपको अजीर्ण हो गया है, आप भोजन का संपूर्ण त्याग कर दें।' शरीर की तंदुरुस्ती का भी ख्याल करो : । कई बार घरों में ऐसा देखने को मिलता है कि घर का व्यक्ति सच्ची राय भी देता है, पर घरवाले नहीं मानते हैं। परन्तु यदि वही बात 'फेमिली डॉक्टर' कह दे तो घर के लोग मान लेते हैं। अन्यथा सामान्य दर्द होने पर 'डॉक्टर' के पास जाने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। __ अजीर्ण के जो लक्षण बताये, वे लक्षण दिखने पर, तुरन्त ही भोजन का त्याग कर दो। एक उपवास.... दो उपवास हो जाने दो.... ठीक हो जाओगे |
धर्मपुरुषार्थ करने में शरीर ही मुख्य साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ एवं नीरोगी रखना चाहिए।
'बलमूलं ही जीवनम्' जीवन का मूल है बल | शरीर का बल | बल यानी सामर्थ्य | शरीर-सामर्थ्य बनाये रखना चाहिए।
शरीर-शक्ति क्षीण होती है अति परिश्रम से और पोषक आहार के अभाव से । 'अशाता-वेदनीय' कर्म का उदय तो मानना ही पड़ेगा, परन्तु वह आन्तरिक कारण है। यह कर्म प्रायः निमित्त मिलने पर उदय में जल्दी आता है। __ जब शरीर-शक्ति क्षीण हो तब अति परिश्रम का त्याग करना चाहिए और अल्प स्निग्ध भोजन करना चाहिए | कभी, परिश्रम से बुखार भी आ जाता है, उस समय, डॉक्टर और दवाइयों के चक्कर में नहीं फँसना....। परिश्रम त्याग कर, विश्राम लें और अल्प स्निग्ध भोजन करें। स्निग्ध भोजन यानी घी में बना हुआ हलवा वगैरह।
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