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प्रवचन-७२ __ पुंडरिक मुनि गुरुदेव के पास पहुँचने के लिए विहार कर गये। कंडरिक रसभरपूर भोजन करने के लिए राजमहल में पहुंच गया। सारे नगर में कंडरिक के प्रति घोर तिरस्कार फैल गया। परन्तु कंडरिक को तो बस, पेट भरकर रसपूर्ण भोजन करना था। उसके मन पर रसलोलुपता सवार हो गई थी। राजमहल के रसोईघर में जाकर उसने रसोइये को अनेक स्वादिष्ट मिठाइयाँ बनाने की आज्ञा दे दी। अनेक प्रिय व्यंजन बनाने के 'आर्डर' दे
दिया।
आर्तध्यान में से रौद्रध्यान में :
उसने पेट भर कर भोजन किया, भूख से ज्यादा भोजन किया.... अत्यधिक भोजन करने के बाद जाकर पलंग पर सो गया। पेट में तीव्र पीड़ा पैदा हुई। वमन....विरेचन होने लगा | वेदना से वह कराहता है। जोर-जोर से चिल्लाता है : 'कहाँ गये मंत्री? जाओ, शीघ्र वैद्यों को बुला लाओ, मेरी आज्ञा का पालन करो....' परन्तु एक नौकर भी कंडरिक के पास नहीं जाता है। कंडरिक तीव्र रोष करता है : 'मेरी आज्ञा नहीं मानते हो? मुझे अच्छा होने दो....एक-एक का शिरच्छेद करूँगा.....मार डालूँगा....।' पेट की पीड़ा बढ़ती जाती है....रौद्रध्यान भी बढ़ता जाता है। उसने सातवें नरक में जाने का आयुष्यकर्म बाँध लिया । उसी रात में वह मर गया और नरक में चला गया। अति भोजन से तैजस शरीर कमजोर :
अति भोजन....वह भी गरिष्ठ भोजन, मौत न हो तो क्या हो? इसलिए ग्रन्थकार आचार्यदेव कहते हैं कि रुचि के उपरान्त....क्षुधा शांत होने के बाद, मात्र रसलोलुपता से भोजन नहीं करें। ऐसा व इतना भोजन करना चाहिए कि शाम को जठराग्नि मंद न पड़ जाय, दूसरे दिन जठराग्नि प्रदीप्त रहे । जठराग्नि को शास्त्रीय भाषा में 'तैजस शरीर' कहते हैं। तैजस शरीर सूक्ष्म शरीर होता है। हाजमे का आधार तैजस शरीर होता है। हाजमा बिगड़ता है तैजस शरीर के कमजोर पड़ने से। तैजस शरीर कमजोर पड़ता है, ज्यादा भोजन करने से। ___ सभा में से : भोजन का परिमाण है क्या? कितना भोजन करना चाहिए, हम लोगों को?
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