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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-७२ २५८ शुरू कीं। दवाइयों के अनुपान में पौष्टिक आहार भी आवश्यक था। मुनि पौष्टिक आहार लेने लगे। कुछ दिनों में मुनि का शरीर सशक्त हो गया । अब उनको वहाँ से विहार कर देना था, परन्तु उनके मन में विचार आया : 'यदि मैं यहाँ से विहार करूँगा तो गाँव-गाँव में मुझे ऐसा प्रिय भोजन कहाँ मिलेगा? रूखा-सूखा भोजन मुझे नहीं भायेगा.... इसलिए अब मैं विहार नहीं करूँगा।' राजा पुंडरिक ने सोचा : 'अब मुनिराज का शरीर संपूर्ण स्वस्थ हो गया है, उनको विहार करके गुरुदेव के पास पहुँच जाना चाहिए।' ___ राजा ने भावपूर्वक वंदना कर, विनम्र शब्दों में कहा : 'मुनिराज, आपने मुझ पर महती कृपा की, आपकी सेवा का लाभ मुझे मिला, आप तो श्रमण हैं....साधु तो चलता भला.... पुनः पधारने की कृपा करना....।' ____ कंडरिक मुनि समझ गये! उन्होंने वहाँ से विहार कर दिया, परन्तु गाँवगाँव की नीरस भिक्षा उनको नहीं भाती है। उनका मन विद्रोह करने लगा। 'अब मुझ से यह साधुजीवन नहीं पलेगा.... मैं वापस संसार में जाऊँगा....।' साथी मुनिवरों को गुरुदेव के पास भेज दिया और वे वापस पुंडरिक नगर के उद्यान में आ गये। ___ राजा पुंडरिक को, उद्यान के माली ने जाकर समाचार दे दिये। राजा के मन में शंका पैदा हुई। वह तुरन्त ही उद्यान में पहुँचा | मुनि को वंदना की और पूछा : 'आप क्यों अकेले वापस पधारे?' मुनि मौन रहे। राजा के सामने भी नहीं देखा | उनके मुख पर ग्लानि थी, चिन्ता थी। राजा ने बार-बार पूछा, परन्तु मुनि तो मौन! कोई प्रत्युत्तर ही नहीं! अन्त में राजा ने पूछ ही लिया : 'क्या अब साधुजीवन नहीं जीना है? तो यह साधुवेश मुझे दे दें और यह राजमुकुट आप धारण कर लें। देखिए, स्वाद की परवशता कितनी खतरनाक है : ___ मुनि का साधुवेश राजा पुंडरिक ने पहन लिया और पुंडरिक के वस्त्र कंडरिक ने पहन लिये | संसारी साधु बन गया, साधु संसारी बन गया....! रसनेन्द्रिय की परवशता ने साधु को संसारी बना डाला | रसनेन्द्रिय-विजय ने संसारी को साधु बना दिया। राजा पुंडरिक संसार में रहे थे फिर भी इन्द्रियविजेता थे। मुनि कंडरिक साधुवेश में थे, परन्तु इन्द्रिय से पराजित हो गये थे....रसनेन्द्रिय से पराजित हो गये थे। For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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