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प्रवचन- ५८
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परन्तु दुःख इस बात का होता है कि ऐसे नशेबाजों का भी समाजों में स्वागत होता है! यदि वे श्रीमन्त होते हैं तो ! दुनिया में श्रीमन्तों की पूजा व्यापक बनी है, फिर वे श्रीमन्त कैसे भी पापाचारों का सेवन करते हों ! इसलिए आज सब को श्रीमन्त बनने की धुन चढ़ी है। अपने ५/१० लाख रुपये होंगे तो अपन कुछ भी कर सकेंगे, अपने को कोई कुछ भी नहीं कहेगा....।' ऐसी मान्यता बन गई है । श्रीमन्तों के पापाचार भी 'फैशन' माने जाते हैं! 'एटीकेट' माने जाते हैं ।
विजातीय मैत्री की पापलीला से सावधान :
पाँचवा व्यापक पापाचार है विजातीय मैत्री का । पुरुष की परस्त्री के साथ मैत्री और स्त्री की परपुरुष के साथ मैत्री । नाम होता है 'मैत्री' का काम होता है व्यभिचार का । 'मैत्री' जैसे पवित्र शब्द को कलंकित बना दिया गया है। यदि किसी युवक की किसी लड़की से मैत्री नहीं है तो वह युवक 'आर्थोडोक्स' गिना जाता है, निर्माल्य माना जाता है। यदि किसी लड़की के कोई युवक मित्र नहीं है तो उसकी 'रील' उतारी जाती है, यानी उपहास किया जाता है । ‘व्यभिचार' को पाप ही नहीं माना जा रहा ....कैसा भयानक और बीभत्स युग आया है?
पहले विदेशों में तो ऐसे पापाचार चलते ही थे, अब इस देश में भी चल पड़े हैं ये सारे भ्रष्टाचार | विजातीय संबंध के साथ-साथ सजातीय संबंध का पापाचार भी नयी फैशन का रूप लेकर चल पड़ा है । विषयवासना-कामवासना मनुष्य में बलवती बनती जा रही है और ज्यादा व्यापक बनती जा रही है। इस वैतरणी के प्रवाह में बह मत जाना, यही मुझे कहना है ।
अब एक देशाचार की चर्चा करके प्रवचन पूर्ण करूँगा। प्राचीनकाल में अपने अपने देश की वेश-भूषा निश्चित होती थी । गुजरात की अपनी वेश-भ --भूषा होती थी, महाराष्ट्र की अपनी वेश-भूषा होती थी । राजस्थान की अलग वेशभूषा देखकर ही पहचाना जाता था कि यह व्यक्ति किस देश का निवासी है। राजाओं का और समाजों का वैसा आग्रह भी रहता था कि हर व्यक्ति अपने देश की वेश-भूषा ही धारण करें । इसलिए यह प्रसिद्ध देशाचार माना जाता था और उसका पालन करना गृहस्थधर्म माना जाता था।
परन्तु जब से भारत में अंग्रेज आये, भारत पर अंग्रेजों का शासन हुआ, तब सेवेश - श-भूषा में परिवर्तन आ गया, और देश स्वतन्त्र होने के बाद तो वेश
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