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प्रवचन-६
८४
मुख्यता: 'भाव' की होती है । काल का महत्त्व गौण होता है। प्रीति और भक्ति आ गई, तो ‘द्रव्य' और 'काल' आ ही जायेंगे। वह परमात्मप्रेमी जब भी उसको ‘चान्स' मिलेगा, परमात्मा के दर्शन हेतु मन्दिर में पहुँच ही जाएगा । मध्याह्न को और शाम को भी। कभी किसी दिन मानो कि मंदिर नहीं जा सका, तो उसकी आत्मा व्यथित रहेगी। उसकी आत्मा तड़पेगी ।
जहाँ प्रेम वहाँ विधि का आदर :
ऐसे परमात्मप्रेमी को, परमात्मभक्त को यदि कोई ज्ञानी पुरुष परमात्मपूजन की विधि बताये; तो वह भक्त गुस्सा नहीं करेगा, अनादर नहीं करेगा; परन्तु उत्सुकता से सुनेगा, उस विधि को अपनाएगा । जैसे : जिनमन्दिर में 'निसीहि ' बोलकर प्रवेश करना, तीन प्रदक्षिणा देना, तीन बार प्रणाम करना, तीन प्रकार की पूजा करना ( अंगपूजा, अग्रपूजा, भावपूजा), परमात्मा की तीन अवस्थाओं का चिन्तन करना (छद्मस्थ अवस्था, कैवल्य अवस्था और रूपातीत अवस्था), परमात्मा की मूर्ति की ओर ही देखना; सूत्र, अर्थ और प्रतिमा का अवलंबन लेना...इत्यादि बातों की ओर उसका ध्यान जाएगा ही ।
जहाँ प्रेम वहाँ समर्पण :
जिसको परमात्मा से प्रेम हो गया, अपने प्रियतम परमात्मा के पास क्या खाली हाथ जाएगा? क्या गंदे वस्त्र पहनकर जाएगा? आप लोग मन्दिर जाते हो न ? मन्दिर में किसके पास जाते हो ? पाषाण के पास या परमात्मा के पास? परमात्मा से लेने जाते हो या कुछ देने? कैसे द्रव्य लेकर जाते हो ? अपने घर से समग्र पूजन सामग्री लेकर जाते हो न ? मन्दिर में रखे हुए लालपीले कपड़े पहनकर तो पूजा नहीं करते हो न ? स्वच्छ और सुन्दर वस्त्र पहनकर पूजा करते हो न ? चन्दन, केसर, दीपक, धूप, फल, नैवेद्य वगैरह लेकर परमात्मा के मन्दिर जाते हो न?
परमात्मा के पास लेने जाते हो या देने?
सभा में से हम तो कुछ भी लेकर नहीं जाते मन्दिर में! कपड़े भी मन्दिर के ही पहनते हैं!
महाराजश्री : आप लोग या तो गरीब होंगे, इसलिए पूजन की सामग्री नहीं ले जाते होंगे! अथवा आप लोग स्वार्थी होंगे! लेने जाते होंगे, स्वार्थी लेने में ही समझता है।
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