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प्रवचन-६ जो सर्वज्ञ नहीं थे और वीतराग नहीं थे, उनका उपदेश करुणाप्रेरित था, त्याग
और वैराग्य की बातें बतानेवाला भी था, काम-क्रोधादि आंतर शत्रुओं पर विजय पाने के लिए था। परन्तु वे सर्वज्ञ नहीं थे, जिन नहीं थे, इसलिए अगोचर-अतीन्द्रिय 'आत्मा' 'कर्म' जैसे तत्त्वों को यथार्थ नहीं बता पाए । उन आत्मा वगैरह अतीन्द्रिय तत्त्वों के प्रतिपादन में विरोध आ गया, तर्क की कसौटी पर वे खरे नहीं उतर पाए । अनुभव ज्ञान में भी वे तत्त्व उनके बताए अनुसार खरे नहीं उतरे। कपिल, बुद्ध, ईसा वगैरह ने करुणा से धर्म का उपदेश तो दिया, परन्तु वे 'जिन' नहीं थे, वीतराग सर्वज्ञ नहीं थे, इसलिए अतीन्द्रिय विषयों में कहीं न कहीं विरोध आ ही गया! एकान्त दृष्टिवाले बन गए, वे आत्मा वगैरह अतीन्द्रिय तत्त्वों के स्वरूप निर्णय में एकान्तवादी बन गए! वस्तु का बहुविध स्वरूप होता है, एक स्वरूप पकड़ कर 'यह पदार्थ ऐसा ही है' ऐसा प्रतिपादन कर दिया, दूसरी ओर 'यह पदार्थ ऐसा है ही नहीं' ऐसा विरोध कर दिया।
जैसे बुद्ध ने कहा : 'आत्मा क्षणिक ही है, अनित्य ही है!' साथ-साथ 'आत्मा नित्य है ही नहीं' ऐसा विरोध भी किया। उसी प्रकार वेदान्तवालों ने कहा : 'आत्मा नित्य ही है!' साथ ही 'आत्मा अनित्य नहीं है' ऐसा विरोध कर दिया। एक ने आत्मा का अनित्यत्व ही देखा, नित्यत्व नहीं देखा! दूसरे ने आत्मा का नित्यत्व ही देखा, अनित्यत्व नहीं देखा! इसलिए उनका उपदेश परस्पर विरोधी हो गया! सर्वज्ञता का साक्षी अनेकान्तवाद : __ भगवान महावीर 'जिन' थे, 'सर्वज्ञ' थे, उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने आत्मा के सब गुणों को, सब पर्यायों को देखा और बताया कि आत्मा द्रव्य से नित्य है, पर्याय से अनित्य है! आत्मा तो वही की वही रहती है, उसकी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं | वस्तु की अवस्थाएँ बदलती रहना उसकी अनित्यता है! कोई विरोध नहीं, कोई विसंवाद नहीं! भगवान महावीर ने जो अनेकान्त दृष्टि दी, वही उनकी सर्वज्ञता की साक्षी है। ___ भगवान महावीर जब सर्वज्ञ और वीतराग बन गए थे, उनके पास उस काल के बहुत बड़े ब्राह्मण विद्वान इन्द्रभूति गौतम आए थे। श्रद्धाभक्ति से नहीं आये थे, महावीर को वाद-विवाद में पराजित करने आए थे। महावीर जानते थे, मात्र जानते थे; उस जानकारी में राग-द्वेष नहीं था, मात्र वे ज्ञाता थे। महावीर ने उनको आदर से बुलाया और उनके मन में जो अतीन्द्रिय तत्त्व के
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