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प्रवचन-२४ हेमचन्द्रसूरिजी ने राजा का ध्यान उस बात की ओर आकर्षित किया था, कितने अच्छे ढंग से! यह भी एक समझने की बात है।
सबेरे-सबेरे जब राजा वंदन करने आया, उसने गुरुदेव के शरीर पर फटी हुई और मोटी चद्दर देखी। वंदन कर, राजा ने हाथ जोड़कर गुरुदेव से पूछा : 'गुरुदेव, क्या पाटन में श्रावक इतने दु:खी हैं कि आपको ऐसी चद्दर ओढ़नी पड़ी है?'
गुरुदेव ने कहा : 'कुमारपाल, तेरे साधर्मिकों के पास देने को जैसा होता है वैसा वे देते हैं, तूने कभी साधर्मिकों के सुख-दुःख जानने का प्रयत्न किया?'
बस! कुमारपाल को अपनी गंभीर भूल समझ में आ गई। उस दिन से उसने साधर्मिकों का दुःख दूर करने का पुरुषार्थ शुरू कर दिया। प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये खर्च करने लगा। गलती बतानेवाले गुरुदेव का उपकार मानने लगा। गुरु दोष नहीं बतायेंगे तो कौन बतायेगा? माध्यस्थ्य-भावना :
राग की प्रबलता न हो, द्वेष की प्रबलता न हो, इसको कहते हैं मध्यस्थता। राग की प्रबलता में अशान्ति होती है, द्वेष की प्रबलता में भी अशान्ति होती है। दो अशान्ति में बड़ा अन्तर है। एक अशान्ति का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, दूसरी अशान्ति का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। राग की प्रबलता में मनुष्य सुख का अनुभव करता है, परन्तु उस सुखानुभव के भीतर अशान्ति भरी पड़ी होती है। जिस सुख का परिणाम दु:ख हो, उसको सुख कैसे कहा जाय? जिस आनन्द का, जिस खुशी का परिणाम अशान्ति और क्लेश हो, उसको आनन्द कैसे कहा जाय? उसको खुशी कैसे कहें? ___ मध्यस्थ बनो। मध्यस्थ बनानेवाली है माध्यस्थ्य-भावना, उपेक्षा-भावना। हालाँकि यह भावना ऐसे जीवों के लिए बताई गई है कि जो अविनीत हैं, उद्धत हैं, मनस्वी हैं और अपना पल्ला ऐसे जीवों के साथ पड़ा हो, उनके अनुचित और अहितकारी व्यवहार से अपना मन उद्विग्न रहता हो, अपना चित्त संक्लिष्ट रहता हो, अशान्त रहता हो। इस उपेक्षा-भावना से, इस भावना के पुनः पुनः अभ्यास से उद्वेग, संक्लेश और अशान्ति दूर हो जाती है। गृहस्थजीवन में भी आवश्यक है यह भावना :
आप गृहस्थ हैं, घर में सभी लोग-परिवार के सदस्य आप का विनय, आदर और सम्मान करें, ऐसा शायद ही किसी परिवार में होगा। आप बड़े हैं, बुजुर्ग हैं, आपका कोई व्यक्ति अविनय करता है, अपमान करता है, औद्धत्यपूर्ण व्यवहार करता है तो आप इस माध्यस्थ्य भावना का अवलंबन लें। इससे आप अशान्ति से बच जायेंगे | संताप से और रोष से बच जायेंगे। जिस प्रकार आप
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