________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
प्रवचन- २४
www.kobatirth.org
३१८
एक बात मत भूलना कि : अपने भविष्य का निर्माण हम खुद करते हैं। अपनी किस्मत और कोई न तो बनाता है न ही बिगाड़ता है!
* जैसे भंग, चरस, शराब और मादक पदार्थों का नशा होता है वैसे ही राग-द्वेष और मोह वगैरह का भी एक तरह का नशा होता है... नशे में फिर होश कहाँ रहेगा?
आप यदि इन भावनाओं को हमेशा अपने जीवन-व्यवहार में स्थान देते रहोगे, तो एक दिन आपको पूरी विचारधारा गंगा को भाँति निर्मल एवं पवित्र हो जाएगी।
● विद्वत्ता अलग चीज है और भावना दूसरी बात है। भावनाशून्य
विद्वत्ता भीतरी आनंद या आन्तरिक प्रसन्नता नहीं जगा सकती । ● कोरो विद्वत्ता लोगों को प्रभावित कर सकती है, प्रेम से आप्लावित नहीं कर सकती! भावनाओं से रचोपची विद्वत्ता औरों को प्रेम से भर देगी!
प्रवचन : २४०
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परम उपकारी महान श्रुतधर पूज्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित ‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं। एक श्लोक में आचार्यदेव ने बहुत सी बातें कह दी हैं । इनकी ग्रन्थ रचनाएँ ही ऐसी हैं, जो थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह देते हैं। भिन्न-भिन्न आचार्यों ने एवं ऋषि-मुनिवरों ने 'धर्म' की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ की हैं। इन सारी परिभाषाओं में यह परिभाषा श्रेष्ठकोटि की परिभाषा लगती है मुझे। आप लोग अच्छी तरह समझ लें इस परिभाषा को। ताकि इधर-उधर भटक न जायें । 'धर्म' के विषय में काफी सोचसमझकर निर्णय करना । क्योंकि धर्म के साथ अपने अनन्त भविष्य का संबंध जुड़ा हुआ है। यदि धर्म के विषय में गड़बड़ी कर दी तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा, भटक जाओगे दुर्गति में । आत्मनिरीक्षण करना सीखो :
जो भी धर्मानुष्ठान करना हो, आप सोच लो कि यह धर्मानुष्ठान किसका बताया हुआ है। किसी रागी -द्वेषी मनुष्य का बताया हुआ तो नहीं है न?
For Private And Personal Use Only