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प्रवचन-२३
३१५ __इस प्रकार एकत्व भावना द्रढ़ करो। माध्यस्थ्य-भावना की बुनियाद है एकत्व भावना । 'एकऽहम्' मैं अकेला हूँ-यह विचार निराशा या दुर्बलता का नहीं है। रोते-रोते मत बोलना कि 'क्या करूँ? मैं अकेला हूँ...। किसी प्रकार की दीनता किये बिना चिन्तन करना कि 'मैं अकेला हूँ।' अन्तःकरण को एकत्व से भावित करना । आत्मभाव को पुष्ट करते रहो। एकत्व के बिना माध्यस्थ्य नहीं :
सभा में से : इस प्रकार सोचना स्वार्थीपन नहीं है? महाराजश्री : नहीं, आत्मभाव को पुष्ट करनेवाला ही सच्चा परार्थ और परमार्थ कर सकता है। जिसने आत्मा को नहीं जाना, आत्मा का एकत्व नहीं जाना, आत्मा की शक्ति नहीं जानी, वह सच्चा और निर्दभ, परार्थ-परमार्थ नहीं कर सकता। करने जाएगा तो दंभ करेगा! साधेगा स्वार्थ, बताएगा परमार्थ! आजकल के देशनेताओं को नहीं देखते? क्या करते हैं वे लोग? कहते फिरते हैं कि 'हम लोग आपका कल्याण करना चाहते हैं, आप लोगों के सुख के लिए प्रयत्न करते हैं और काम क्या करते हैं? अपना 'बैंक-बेलेन्स' अच्छा कर लेते हैं! कैसा भयंकर दंभ? जो अपने आपको नहीं जानता है, आत्मा का जो चैतन्य स्वरूप है, उसको नहीं जानता है, वह परमार्थ नहीं कर सकता है। इसलिए प्राचीनकाल में ऋषि-महर्षि छात्रों को जो शिक्षा देते थे, उस शिक्षा में सर्वप्रथम 'आत्मा' समझाते थे। चाहे प्रारंभ में दार्शनिक ढंग से नहीं समझाते होंगे, परन्तु आत्मा के प्रति प्रेम जाग्रत करते होंगे। आत्मप्रेमी मनुष्य ही सच्चा परिवारप्रेमी, समाजप्रेमी, राष्ट्रप्रेमी और विश्वप्रेमी बन सकता है। आत्मा को तर्कों से चाहे देर से समझो, आत्मा से प्रेम तो कर सकते हो। यानी आत्मा का जो एकत्व है, निर्द्वद्वता है, उसके प्रति प्रेम करो। आत्मप्रेमी मनुष्य स्वार्थी नहीं बन सकता। वह सच्चा परमार्थी बनेगा। वही सच्चा परोपकारी बनेगा। जो आत्मज्ञानी नहीं है वह कभी भी सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता । एकत्व के साथ माध्यस्थ्य का संबंध है। एकत्व के बिना माध्यस्थ्य नहीं! आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा कम होती जा रही है :
आज तो प्रजा का घोर दुर्भाग्य है। आत्मज्ञान की शिक्षा ही स्थगित हो गई। किसी भी स्कूल-कॉलेज में आत्मज्ञान नहीं दिया जाता। आत्मज्ञान से ज्यादा प्रतिष्ठा विज्ञान को मिल गई। आत्मज्ञानी से बहुत ज्यादा प्रतिष्ठा विज्ञानी को मिल गई। परिणाम बहुत ही विघातक आया है। थोड़े वर्षों में
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