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प्रवचन-२३
____३१३ से भावित बनो । जड़ पदार्थों के प्रति निर्वेदसारा उपेक्षा-भावना से भावित बनो। विश्व में दो ही तत्त्व हैं : जड़ और चेतन । अपने को इन दो तत्त्वों के सम्पर्क में रहना ही पड़ता है। अपना स्वयं का अस्तित्व भी इन दो तत्त्वों के संयोजन से है। शरीर जड़ है, तो आत्मा चेतन है। आत्मा सदा के लिए शरीर के बंधन से मुक्त हो जाएगी तब इस संसार से छुटकारा हो जाएगा। परन्तु शरीर के बंधन से मुक्त होना आसान काम नहीं है।
'मैं सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ, मैं अशरीरी हूँ,' ऐसा चिन्तन कभी किया है? अपनी आत्मा से कभी प्रेम किया है क्या? आत्मा से प्रेम हो जाय तो ही उसको शरीर के बन्धन से मुक्त करने का पुरुषार्थ हो सके । शरीर बन्धनरूप लगे।
सभा में से : शरीर तो बड़ा प्यारा लगता है, शरीर कभी बन्धनरूप लगता ही नहीं! ___ महाराजश्री : यही तो बात है! शरीर प्यारा लगता है, तो आत्मा का विचार आता ही नहीं है। कभी-कभार रात्रि के समय, जब परिवार के लोग सो गये हों, आपकी निद्रा टूट गई हो, उस समय बिछोने में शान्ति से बैठकर, आत्मचिन्तन किया करो। मकान की खिड़की से खुले नील गगन की ओर देखो...अनन्त आकाश की ओर देखो...फिर विचार करो : कोऽहम्? 'मैं कौन हूँ?' __ आप अपनी वर्तमान अवस्था को भूल जाना। 'मैं छगनलाल या मगनलाल हूँ या मैं सुरेन्द्रकुमार या महेन्द्रकुमार हूँ... मैं श्रीमंत हूँ या मैं गरीब हूँ... मैं दुर्बल हूँ या मैं पहलवान हूँ... 'यह सब याद नहीं करना। ये तो सारी परिवर्तनशील अवस्थाएँ हैं। जो स्थिर तत्त्व है, जो मूलभूत तत्त्व है - 'ओरिजनल मैटर' है वह मैं हूँ। वह है आत्म-द्रव्य | आत्म-द्रव्य अनामी है, अशरीरी है, अजर और अमर हैं। नहीं है उसकी वृद्धावस्था, नहीं है उसकी मृत्यु | अपार, अनन्त आनन्द है उसमें । अक्षय, अविनाशी सुख है उसमें | आप इस चिन्तन में डूब जाओ...थोड़े क्षणों के लिए भी डूब जाओ। डूबने में बड़ा आनन्द है। स्वभावदशा के चिन्तन में डूब जाओ। डरो मत, डुबकियाँ लगाते रहो। परचिंता छोड़ो, आत्मचिंतन में डूबे रहो : _परायी चिन्ताओं के सागर में डूबने से तो आर्तध्यान और रौद्रध्यान बना रहता है। चित्त अशान्त और अस्वस्थ बना रहता है। परायी चिन्ताएँ करने से
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