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प्रवचन-२३
३०७ विकारी स्वरूप हैं | हम विकारी होते हुए भी अविकारी आत्मस्वरूप का चिंतन कर सकते हैं। मनुष्य निर्धन होते हुए भी धनवान की कल्पना में खो जाता है न? निर्बल होते हुए भी बलवान की कल्पना करता रहता है! वैसे हम विकारी होते हुए भी, कुछ क्षणों के लिए विकारों से मुक्त होकर अविकारी स्वरूप का चिंतन कर सकते हैं। ___ मैं ज्ञानमय हूँ, मैं वीतराग हूँ, मैं अजर-अमर, अमूर्त, अरूपी और अनंत हूँ, मैं अशरीरी हूँ | मैं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हूँ | मैं परभावों का कर्ता नहीं हूँ, भोक्ता नहीं हूँ। मैं स्वभाव का ही कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ। मैं अनंत शक्ति का भंडार हूँ|
सोचोगे क्या? ऐसा आत्मध्यान करोगे क्या?
सभा में से : ऐसा आत्मध्यान तो हम लोगों ने जीवन में कभी किया नहीं है... ऐसा करना तो मुश्किल-सा प्रतीत होता है।
महाराजश्री : कभी जो नहीं किया वही तो करना है! हमेशा जो किया है वह तो छोड़ना है! हमेशा परचिंताएँ की हैं, उनका त्याग करना है। हमेशा विकारी स्वरूप का मनन किया है, उसका त्याग करना है। जो आत्मध्यान नहीं किया है, वह करना है! अविकारी आत्मस्वरूप का ध्यान करना है। मुश्किल काम करने में ही मज़ा है। आप विश्वास के साथ करो, करते रहो, आनन्द का अनुभव होगा। उपेक्षा-भावना का दूसरा प्रकार :
दूसरा प्रकार उपेक्षा-भावना का है 'अनुबंध सारा' | कोई मनुष्य है, आलस से भरा हुआ है, न धंधा करता है, न नौकरी करता है, सोता रहता है, घूमता रहता है आवारा की तरह। आपने उसको समझाया, काफी समझाया और वह समझ गया। प्रमाद का त्याग कर उसने व्यवसाय करना शुरू कर दिया, धीरे धीरे उसने अच्छी उन्नति की, तब आपने उसको प्रेरणा देना बंद कर दिया, उस व्यक्ति में रस लेना छोड़ दिया, इसको कहते हैं अनुबन्ध-सारा उपेक्षा! यह बड़ी अच्छी बात है। कइयों को ऐसी आदत होती है जिसको प्रेरणा देकर रास्ते लगाया हो, उसको बार-बार याद दिलाते रहते हैं : 'तुम पहले कैसे थे? तुम को रास्ते लगाते-लगाते मुझे कितना परिश्रम करना पड़ा है, जानते हो? अच्छा हुआ तुम रास्ते लग गए। अब ध्यान से चलना...' वगैरह। यह बात अच्छी नहीं है। सामनेवाले मनुष्य को आघात लगता है, बुरा लगता है। कभी ऐसा भी हो जाए कि वह मनुष्य अपना रास्ता छोड़ दे! पूर्ववत् स्थिति में पहुँच
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