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प्रवचन-२२ __ सभा में से : जिन जिन मनुष्यों की हमारे पर जिम्मेदारी होती है, उनको तो कभी कठोर शब्दों में भी कहना पड़ता है! नहीं कहें तो वे लोग ज्यादा बिगड़ जायँ! असहिष्णुता जबान को कड़वी बनाती है :
महाराजश्री : कठोर भाषा में कहने से जो सुधर जाते हैं, उनको कहने का मैं इनकार नहीं करता। कटु शब्दों से प्रभावित होकर जो सुधरते हों, उनको कटु शब्द सुनाने का मैं निषेध नहीं करता हूँ। जो सर्जन डॉक्टर होते हैं, वे केस को मरीज को पहले देखते हैं। उनको लगे कि 'ऑपरेशन थियेटर' में ही मर जाएगा! इसका शरीर ज्यादा कमजोर है...' तो डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करते हैं। उसको सशक्त बनाने की दवाइयाँ देते हैं। ऑपरेशन करने का प्रयोजन होता है मरीज को जिंदा रखने का, यदि प्रयोजन सिद्ध नहीं होता हो तो ऑपरेशन करने से क्या? वैसे दूसरों को कटु शब्द, अप्रिय सुनाने का प्रयोजन क्या होता है? दूसरों को सुधारने का न? ऐसा लगता है कि 'कटू शब्दों से यह सुधरेगा नहीं परन्तु ज्यादा बिगड़ेगा, तो कटु शब्द सुनाने की आवश्यकता क्या? परन्तु बात एक दूसरी है! पराई चिंता छोड़ो, अपनी सँभालो :
दूसरों को सुधारने की बात ठीक है, अपने से दूसरों का अविनय, औद्धत्य, असंयम सहन नहीं होता है, इसलिए हम कटु शब्द सुनाते हैं! अपनी असहनशीलता कठोर शब्द इस्तेमाल करवाती है। असहनशीलता में से द्वेष जाग्रत होता है। अपने आश्रितों का अयोग्य आचरण देखकर अपने से सहा नहीं जाता है और कहने पर भी, उपदेश देने पर भी वे सुधरते नहीं हैं तब सहन नहीं होता है! सही बात है न? 'मैं तुम्हारा पालक हूँ, तुम्हारी आजीविका में चलाता हूँ, तुम्हें मेरा कहा मानना चाहिए।' है न ऐसी कल्पना आपके दिमाग में? यह कल्पना ही आपको राग-द्वेष करवाती है। जो आपका कहा मानता है उसके प्रति राग और जो आपका कहा नहीं मानता है उसके प्रति द्वेष! प्रतिदिन प्रतिघंटा ये राग-द्वेष होते रहते हैं! आप लोग अपने आपको दुःखी मानते हो! मन में तड़पते रहते हो! ऐसा क्यों करना? ऐसी परचिंता नहीं करनी चाहिए कि जिसका कोई फल नहीं मिलने का हो। जिससे अपनी चित्तप्रसन्नता चली जाती हो!
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