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प्रवचन-२२
२९१ दुर्गति में गिरने से जो बचाये वह है धर्म :
दुर्गति में गिरने से जीवों को वह धर्म ही बचा सकता है, जो धर्म मैत्री आदि भावों से भरपूर हो । जो मनुष्य अपने हृदय को मैत्री आदि भावों से नवपल्लवित रखता है, वह मनुष्य दुर्गति में नहीं जाता है। मैत्री आदि भावनाओं से सुरभित हृदयवाला मनुष्य जो भी धर्मानुष्ठान करता है, वह धर्मानुष्ठान उसकी आत्मा को स्पर्श करता है। दुष्कर्मों का नाश करता है। सत्कर्मों का सर्जन करता है | मैत्री वगैरह चार भावनाओं से रहित मनुष्य की धर्मक्रियाएँ भी निष्फल जाती हैं। दुर्गति से वह बच नहीं सकता! 'जीवद्वेष' जैसा कोई पाप नहीं है। जीवपीड़न जैसा कोई दुष्कृत्य नहीं है। जीवद्वेष को मिटाने के लिए पुनः पुनः मैत्री आदि भावनाओं की गंगा में स्नान करते रहो। मैत्री आदि भावनाएँ प्रतिदिन पुनः पुनः गाने की हैं। इसलिए मैं विस्तार से इन भावनाओं को समझा रहा हूँ। आज हमको माध्यस्थ्य-भावना पर चिन्तन करना है। यह भावना बहुत ही अच्छी भावना है। वर्तमानकालीन ध्वस्त पारिवारिक जीवन में अपने मन को संतुलित रखने के लिए यह भावना 'रामबाण औषध' है।
जिन स्त्री-पुरुषों के ऊपर दूसरों की जिम्मेदारी होती है, उन स्त्री-पुरुषों के लिए यह माध्यस्थ्य-भावना अत्यंत उपयोगी है। अर्थात् उन स्त्री-पुरुषों को अपने हृदय में इस भावना-रसायण को सुरक्षित रखना चाहिए। पहले इस भावना के प्रकार बताऊँगा, बाद में इस भावना को कब और कैसे जीवन में उपयोगी बनाया जाये, वह बताऊँगा। संसार में बुराइयाँ अनादि-अनंत :
माध्यस्थ्य-भावना को 'उपेक्षा'-भावना भी कहते हैं। यह 'उपेक्षा' चार प्रकार की बताई गई है।
१. करुणा सारा २. अनुबन्ध सारा ३. निर्वेद सारा ४. सत्त्व सारा
यदि दुनिया में सभी लोग विनीत होते, सब लोग अच्छे होते तो उपेक्षाभावना की आवश्यकता ही नहीं होती! परन्तु हमेशा दुनिया में अच्छाई-बुराई साथ रही है। तीर्थंकरों के काल में भी अच्छाई और बुराई थी न? जैसे संसार
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