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प्रवचन-२१
२८८
पुत्र के सुख के प्रति माँ को भी ईर्ष्या :
एक माता है। उसने अपने एक ही एक पुत्र की शादी की। अच्छे खानदान की लड़की से शादी की। माता-पिता को अपने पुत्र पर प्रेम तो था ही, 'पुत्र हमारा ही बना रहना चाहिए, पत्नी का नहीं बन जाना चाहिए,' ऐसा भी भाव था। शादी के बाद लड़का अपनी पत्नी को लेकर कभी-कभी घूमने चला जाता है, माता से पूछता नहीं है, माता को बुरा लगा। अब यह लड़का मेरा मानता नहीं, मुझे कुछ भी पूछता नहीं। माँ ने लड़के को दो-चार बार टोका भी सही, परन्तु लड़के ने ध्यान नहीं दिया। अब माँ ने कुछ चाल चलने का सोचा। उसने एक बनावटी प्रेम-पत्र लिखा और पुत्रवधू की पहनने की साड़ी में रख दिया। दूसरे दिन जब अपने पति के सामने उसने साड़ी उठाई, खोली, तो अन्दर से वह प्रेम-पत्र जमीन पर गिर गया, झटपट वह पत्र लेने गई, परन्तु उसके पहले उसके पति ने पत्र को उठा लिया और पत्र को खोलकर पढ़ने लगे, उसका मनोभाव बदलने लगे, उसकी मुखाकृति बदल गई! पत्नी तो बेचारी घबरा उठी। पति ने पत्नी को खरीखोटी सुनाई। पत्नी गर्भवती भी बन गई थी। परन्तु पति का गुस्सा उस बनावटी प्रेम-पत्र से इतना भड़क गया था कि पत्नी उस गुस्से को शान्त नहीं कर सकी। लड़के की माँ तो बड़ी खुश हुई। 'अब मेरा बेटा मेरा कहा मानेगा।' अपने सुख के लिए माँ ने अपने पुत्र की और पुत्रवधू की जिंदगी में आग लगा दी। पुत्रवधू को उसके मायके भेज दिया। पितृगृह में आकर उसने पुत्र को जन्म दिया। अपने पति को समाचार भेजे, परन्तु वह नहीं आया। दो साल तक नहीं आया। माँ ने उस प्रेम-पत्र का रहस्य बेटे को बताया ही नहीं। दो साल के बाद पत्नी ने तलाक पसन्द किया
और अपना जीवन नये उत्साह से शुरू किया। ईर्ष्या जला डालेगी : ___ अपने पुत्र एवं पुत्रवधू का भी सुख माँ नहीं देख सकी और उनका सुख नष्ट करने का अधम मार्ग अपनाया, इससे बढ़कर ईर्ष्या का कार्य दूसरा क्या हो सकता है? पुत्र-परिवार के सुख की ईर्ष्या करनेवाले दूसरों के सुख की ईर्ष्या तो कितनी करते होंगे? इससे, ऐसा करने से क्या वे स्वयं सुखी बन जाते हैं? सुखी बनना हो तो दूसरों के सुखों की ईर्ष्या करना तत्काल छोड़ दो। सुखी और गुणवान् पुरुषों के प्रति प्रमोदभाव का विकास करो।
अरिहंत परमात्मा, सिद्ध भगवंत, साधुपुरुष, साध्वी, गृहस्थपुरुष एवं स्त्री
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