________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन-२१
२७५ पm आजकल गुणवानों का अपमान करना, उनका हँसी-मजाक
करना और सुखी लोगों को नफरत से देखना या उनकी टीका-टिप्पणी करना तो जैसे 'फेशन' सा हो गया है। • पूर्वजन्म में जिन्होंने दान-शील-तप वगैरह धर्म की उत्कृष्ट
आराधना की होती है, वे वर्तमान जीवन में अनेक प्रकार - की सुख-सुविधा को प्राप्त करते हैं। उनकी ईा हमको नहीं करनी चाहिए। प्रमोद-भावना की पहली शर्त यही है कि आप किसी के सुख
की ईा न करें। . प्रेम के लिए ईर्ष्या जहर है! ईर्ष्या के जहर ने प्रेम को हमेशा
मारा है।
ईर्ष्या की मानसिक करता प्रेम के नाजुक फूलों को कुचल डालती है। बचो इस ईा 'डायन' से!
*
प्रवचन : २१
परम उपकारी महान श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने स्वनिर्मित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का बहुत ही अच्छा स्वरूप बताया है। धर्मक्रियाओं का जैसे स्वरूप समझाया वैसे, धर्मक्रिया करनेवाले मनुष्य का हृदय कैसा होना चाहिए, वह भी बताया है। धर्मक्रिया शुद्ध हो परन्तु धर्मक्रिया करनेवाले का हृदय अशुद्ध हो, तो वह क्रिया धर्म नहीं बनेगी! कैसी चोटदार बात कही है हरिभद्रसूरिजी ने! यदि आपको धर्म पाना है तो आप अपने हृदय को शुद्ध बनाइए। द्वेष, ईर्ष्या, तिरस्कार और घृणा के दुष्ट भावों को हृदय से निकाल दें। हृदय-उपवन में मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावों के प्रति माध्यस्थ्य - इस प्रकार विद्वानों ने विभागीकरण किया है। अपना विवेचन प्रमोद-भावना पर चल रहा है। आप क्या औरों के सुख में संतुष्ट हैं?
प्रमोद-भावना का दूसरा नाम है मुदिता-भावना । अर्थ समान है, शब्दरचना में ही थोड़ा अंतर है। 'प्रमोद' पुल्लिंग शब्द है, 'मुदिता' स्त्रीलिंग शब्द है।
For Private And Personal Use Only