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प्रवचन-१९
२५३ कोशा ने रत्नकम्बल लेकर उसको दो टुकड़े कर दिए और अपने पैरों को पोंछ कर वहीं पर गटर में डाल दिया! मुनि तो हक्केबक्के रह गए... व्याकुल चित्त से बोल उठे : 'अरे! क्या कर दिया तूने? लाख रूपये का कम्बल गटर में डाल दिया? मैंने कितनी मेहनत कर....' मुनि की आँखों में आँसू भर आए। कोशा के मुख पर नहीं थी ग्लानि, नहीं थी व्याकुलता! कोशा ने मुनिराज से कहा : कोशा का सटीक प्रत्युत्तर :
'हे सिंहगुफावासी मुनि! शोक मत करो, लाख रूपये का रत्नकम्बल तो दूसरा भी मिल जाएगा, परन्तु आप अरबों रूपये देने पर भी नहीं मिलें वैसे पाँच महाव्रत संसार की गटर में फेंक रहे हो-मुझे इस बात का भारी दुःख है। आप मेरे रूप में मोहान्ध बन गए। वर्षाकाल में नेपाल गये। मुझे पाने के लिए रत्नकम्बल ले आए और अब आप अपना पवित्र साधुजीवन छोड़कर संसार के असार... तुच्छ वैषयिक सुख पाने को लालायित हो गए। कुछ सोचो। गम्भीरता से सोचो | मैं जानती हूँ कि आप महामुनि स्थूलभद्रजी का अनुकरण करने आये थे।'
सिंहगुफावासी मुनिवर! सिंह की गुफा के द्वार पर चार महीना निर्भय बनकर रहना सरल है, रूप और यौवन से छलकती यौवना के सामने निर्विकार रहना दुष्कर ही नहीं, अति दुष्कर है। ऐसा अति दुष्कर कार्य एक मात्र स्थूलभद्रजी कर सकते हैं। आप उनका गलत अनुकरण करने चले और मेरे सामने आते ही कामपरवश बन गये| स्थूलभद्रजी का प्रकर्ष आपसे सहा नहीं गया, आप ईर्ष्या से जलने लगे और गलत रास्ते पर उतर आए।' ___ मुनि तो कोशा की बातें सुनकर स्तब्ध हो गए। उनका कामोन्माद शान्त हो गया । मुनि होश में आ गए! कोशा ने नम्रता से, विनय से और सभ्यता से मुनि को जो कहना था कह दिया। उसने दृढ़ स्वर में कहा : 'हे महामुनि! श्री स्थूलभद्रजी ने मुझे व्रतधारी श्राविका बनाया है। आप मुझे मात्र नृत्यांगना मानकर आए, वह आपकी भूल है | चार-चार महीने मैंने स्थूलभद्रजी के सामने नृत्य किए थे, गीत गाए थे और उनको षड्रस से भरपूर भोजन कराये थे, फिर भी वे महामुनि विकारी नहीं बने! विचलित नहीं हुए। मैंने अपना पराजय स्वीकार किया, उनको मैंने कामविजेता के रूप में पाया।
आप भी महामुनि हैं। आपने अपने जीवन में अनेक कठोर साधनाएँ की हैं।
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