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प्रवचन-१९
२४७ आपका स्वाभाविक स्वरूप क्या है और कर्मों के प्रभाव से प्रभावित वैभाविक स्वरूप क्या है, जानते हो? प्रत्येक संसारी जीवात्मा के दो स्वरूप होते हैं : स्वाभाविक और वैभाविक | सारे के सारे दोष वैभाविक स्वरूप का उत्पादन हैं | सारे के सारे गुण स्वाभाविक दशा का 'प्रोडक्शन' हैं! यदि यह तत्त्वज्ञान पा लो तो जीवों के प्रति आपके हृदय में द्वेष, धिक्कार, ईर्ष्या और घृणा जैसे दुष्ट भाव पैदा नहीं हो सकते। यह तत्त्वज्ञान जिन महापुरुषों ने आत्मसात् किया होता है उनके हृदय में जीवों के प्रति मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भाव बने रहते हैं। मोह और अज्ञान से ग्रस्त जीव भले ही द्वेष करें, ईर्ष्या करें, धिक्कार और घृणा करें, उनके प्रति भी तत्त्वज्ञानी द्वेष नहीं करेंगे, ईर्ष्या नहीं करेंगे। उनको धिक्कारेंगे नहीं, उनका तिरस्कार नहीं करेंगे| तत्त्वज्ञानी तो बनना पड़ेगा! तत्त्वज्ञान आत्मसात् करना पड़ेगा। __ मैत्री की भावना से शत्रुता का दोष दूर होता है, करुणाभावना से धिक्कार का दोष नष्ट होता है, ईर्ष्या का दुर्गुण प्रमोदभावना से दूर किया जाता है और घृणा की वासना माध्यस्थ्य भावना से नष्ट होती है। ईर्ष्यालु मत बनिए : ___ जीवों के प्रति ईर्ष्या का दोष बहुत खतरनाक है। ईर्ष्या को 'मत्सर' भी कहते हैं। ईर्ष्या से मनुष्य अपनी चित्तशान्ति, चित्तप्रसन्नता खो देता है। ईर्ष्या रोष उत्पन्न करती है। दूसरे जीवों का सुख देखकर, दूसरों की उन्नति देखकर अपने हृदय में आनंद नहीं होता है, खुशी पैदा नहीं होती है, प्रेम जाग्रत नहीं होता है तो समझना कि अपना हृदय ईर्ष्या से भरा हुआ है। ईर्ष्याग्रसित मन अशान्त और बेचैन ही बन रहता है। ऐसे मन का दुष्प्रभाव तन पर पड़ता है
और तन रोगग्रस्त बन जाता है। ईर्ष्यालु मनुष्य का शरीर आप देखना, वह निरोगी नहीं होगा।
हृदय में ईर्ष्या भरी पड़ी हो और वह कितनी भी धर्मक्रियाएँ करें, वे धर्मक्रियाएँ मात्र जड़ क्रियाएँ बनी रहेंगी, वे 'धर्म' नहीं बन सकती। ईर्ष्या से तो मनुष्य का पतन ही होता है! फिर वह गृहस्थ हो या साधु हो! बालक हो या बूढ़ा हो! स्त्री हो या पुरुष हो! उसका पतन ही होगा। एक प्रसिद्ध कहानी :
शास्त्रों में एक उदाहरण आता है, ऐतिहासिक उदाहरण है। एक आचार्य थे, संभूतिविजय उनका नाम था। उनके अनेक शिष्य थे। कोई बड़े तपस्वी थे,
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