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प्रवचन-१८
२४४ हो रहा है, चोर पकड़े गए और उनको सजा होगी...इस बात का दुःख हो रहा है सुव्रत को! 'राजा चोरों को सूली पर चढ़ा देगा। बेचारे चार आदमी मेरे धन के निमित्त मर जायेंगे...!' ऐसा सोच रहे हैं सुव्रत श्रेष्ठि। आप क्या सोचेंगे ऐसे वक्त में! : __ऐसी घटना आपके वहाँ बने तो आप क्या करो? तुलनात्मक दृष्टि से सोचो जरा! धनसंपत्ति की लोलुपता क्या करवाये? चोर पकड़े जायें तो राजी या नाराज? अरे, नहीं पकड़े जायें तो पकड़वाने के लिए आकाश-पाताल एक कर दो! क्यों सही बात है न?
सभा में से : चोरों को तो सजा होनी चाहिए न? __ महाराजश्री : यह सोचने से पहले यह सोचो कि इन्सान को चोरी क्यों करनी पड़ती है। चोरी के पाप से मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं? सजा करने से, मारने से यदि वह चोरी का पाप छोड़ देता हो तो ठीक है, सजा करो! चोरी का पाप करनेवाला पहले तो करुणापात्र है, बाद में सजापात्र! सजा करने में भी हृदय तो करुणावाला ही चाहिए। "कैसा पाप करता है यह जीव...| कितना दुःखी हो रहा है...?' उसके प्रति सहानुभूति चाहिए | सुव्रत श्रेष्ठि तो यह चाहते हैं कि 'चोरों को सजा नहीं होनी चाहिए, मैं उनको बचा लूँ, उनको मैं समझाऊँगा, वे चोरी नहीं करेंगे भविष्य में ।'
उपवास का पारणा नहीं किया और पहुँचे राजमहल में राजा के पास । राजा को सुव्रत श्रेष्ठि के प्रति आदर था। राजा ने श्रेष्ठि का स्वागत किया
और प्रातःकाल में आने का प्रयोजन पूछा। सेठ ने चोरों के लिए अभयदान माँगा। इतने में कोतवाल भी चारों चोरों को लेकर राजा के पास उपस्थित हुआ। सुव्रत जैसे धर्मात्मा की हवेली में चोरी करनेवाले चोरों के प्रति राजा को बड़ा गुस्सा आ गया। परन्तु सुव्रत ने राजा को शान्त करते हुए कहा : 'महाराजा, दोष इन चोरी करनेवालों का नहीं है, मेरा है। मैंने... मेरे जैसे श्रीमंत ने दुःखी मनुष्यों की चिन्ता नहीं की, उनके दुःख दूर करने का काम नहीं किया, इसलिए इनको चोरी का पाप करना पड़ रहा है। आप इनको मुक्त कर दें, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ये लोग अब चोरी नहीं करेंगे। उनको जो चाहिए मैं दूंगा।' दुःखी को ही नहीं, दुःख को भी जानो :
दुःखी को सजा करने के बजाय दुःखी का दुःख दूर करने के लिए सोचो।
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