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प्रवचन-२ क्रियाएँ! हाँ, मन का निर्णय गलत हो गया हो और उस क्रिया से इच्छित फल नहीं मिले, वह बात दूसरी है। मनकी इच्छा है धनवान बनने की, संपत्ति पाने की। उसको लगा कि 'यह 'धंधा-बिजनेस' करने से मुझे ज्यादा धन मिलेगा।' धंधा किया, धन नहीं मिला, ऊपर से स्वयं का धन खोया । हो सकता है ऐसा । परन्तु धंधा किया उसने धन पाने की इच्छा से । धंधा करने से धन मिलता है; इस विचार से ही वह धंधा करता है। बुद्धिमान फल के बारे में सोचे :
आचार्यदेव की भावना है जीवों के पास धर्म करवाने की। उनका पूर्ण विश्वास है कि धर्म करने से जीव शिव बन सकता है, पूर्ण सुख और अनन्त आनन्द पा सकता है। उनकी भावना है 'सब जीवों को पूर्ण सुख और अनन्त आनन्द प्राप्त हो!' इस प्रबल भावना से प्रेरित होकर जब वे जीवात्माओं को उपदेश देते हैं : 'धर्म करना चाहिए, धर्म करो।'तुरन्त ही बुद्धिमान पूछता है : 'हमें क्यों धर्म करना चाहिए? धर्म करने से हमें क्या मिलेगा? कौन-सा फल मिलेगा?'
बुद्धिमान मनुष्य के सामने कोई भी नया काम आयेगा, तुरन्त ही वह उसके लाभ के विषय में सोचेगा | उसे विश्वास हो जायेगा कि 'इस काम से मुझे कुछ लाभ होगा...अच्छा फल मिलेगा, तो ही वह नया काम करेगा। उसको लगेगा कि 'इस काम के करने से मुझे नुकसान होगा, लाभ नहीं होगा, तो वह काम नहीं करेगा। मानव-मन की यह स्वाभाविकता है। इतना ही नहीं, जिस कार्य से मनुष्य को लाभ होता है, इच्छित सुख मिल जाता है, उस कार्य के स्वरूप को जानने में उसकी दिलचस्पी भी कम ही रहती है। कार्य कैसे करना, कैसे करने से लाभ हो सकता है, इस बात की जानकारी तो प्राप्त करेगा, परन्तु यह कार्य अच्छा है या बुरा-शायद नहीं सोचेगा। क्योंकि उसकी दृष्टि फल की
ओर होती है। लाभ कमाने की ओर होती है। मानव-मन का यह स्वभाव देखते हुए ग्रन्थकार महात्मा धर्म के लाभ, धर्म का फल बताते हैं। वे कहते हैं :
धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः कामिनां सर्वकामदः ।
धर्म एवापवर्गस्य पारम्पर्येण साधकः ।। आइए, धर्म का फल जानना चाहते हैं? तुम ही कहो, तुम्हें क्या चाहिए? धन चाहिए? धर्म धन देता है!
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