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प्रवचन-१८
२३७ ___ मंत्री ने उसको समझाया कि तेरे भिक्षापात्र में कितना गन्दा और सड़ा हुआ भोजन है? ऐसा भोजन नहीं खाना चाहिए | तू इसको निकाल दे, पात्र को धोकर साफ कर दे, शुद्ध पात्र में उत्तम भोजन लेना चाहिए। अशुद्ध के साथ शुद्ध भी अशुद्ध बन जाता है। यदि मैं इस सड़े हुए भोजन में मेरा शुद्ध भोजन डालूँगा तो वह भी बिगड़ जाएगा।' मंत्री ने उसको भिक्षापात्र साफ करने को समझाया, परन्तु वह नहीं समझा! बहाना बनाकर वहाँ से भाग गया! भिखारी का भिखारी रहा। हृदय को शुद्ध-स्वच्छ करना होगा :
ज्ञानी पुरुष कहते हैं पहले तुम्हारा हृदय साफ करो। साफ हृदय में परमात्मा की दिव्यकृपा उतरती है और वह दिव्यकृपा तुम्हारे सारे दु:ख मिटा देगी। करना है हृदय साफ? क्रूरता, शत्रुता, ईर्ष्या, रोष धिक्कार-तिरस्कार... यह सब सड़ा हुआ माल है! बाहर फेंक दो । फेंकोगे बाहर? हृदय में यह सब सड़ा हुआ माल रखना है और उस हृदय में परमात्मा की करुणा उतरे, ऐसा चाहते हो? यह कभी नहीं होगा। मलिन, अशुद्ध और पाप-विचारों से भरपूर हृदय में परमात्मा की करुणा अवतरित नहीं होती है। शुद्ध हृदय को धर्म कहा है, इसका यही तात्पर्यार्थ है। शुद्ध हृदय में परमात्मकृपा उतरती है, वही ही धर्म है। जिस हृदय में परमात्मकृपा हो, उस हृदय में अधर्म नहीं रह सकता। जिस कमरे में प्रकाश होता है, उस कमरे में अंधकार नहीं रह सकता।
सभा में से : हृदय को शुद्ध कैसे करें? वह तो काम-क्रोध आदि से अशुद्ध बना ही रहता है! आज शुद्ध करते हैं तो कल पुनः अशुद्ध हो जाता है।
महाराजश्री : समस्या तो है ही! परन्तु सुलझे ही नहीं वैसी समस्या तो नहीं है। हृदय को शुद्ध करते रहो! रोज अशुद्ध होता है तो रोज शुद्ध करो। रोजाना शरीर गन्दा होता है तो रोजाना स्नान करते हो न? रोजाना वस्त्र गन्दे होते हैं तो रोजाना वस्त्र धोते हो न? वैसे हृदय रोजाना अशुद्ध होता है तो रोजाना शुद्ध करते रहो! रात को सोने के पूर्व हृदय शुद्ध करके सोया करो। निरन्तर यह काम करते रहो। एक दिन हृदय ऐसा शुद्ध हो जाएगा कि फिर कभी अशुद्ध नहीं बनेगा। एक छोटा-सा प्रयोग :
दो श्लोक बराबर याद कर लो, अर्थ भी समझ लो, फिर प्रतिदिन त्रिकाल पाठ किया करो।
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