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प्रवचन-१७
२३१ दर्शन से और बड़े भाई के मिलने से। सचमुच बड़े भाई देवतुल्य हैं। उनकी उदारता, उनका वैराग्य, उनकी ज्ञानदृष्टि-यह सब देखकर मेरा हृदय उनके चरणों में झुक गया है।'
चन्द्रयश ने साध्वीजी के सामने अपनी संसारत्याग की भावना व्यक्त कर दी। अपना निर्णय सुना दिया। साध्वीजी की आँखें हर्ष के आँसुओं से भर गई। 'वत्स, तेरा निर्णय यथोचित है। मानवजीवन में चारित्र्यधर्म की आराधना कर लेना ही परम कर्तव्य है। जीवन चंचल है, आयुष्य क्षणिक है, संसार के भोगसुख दुर्गति में ले जानेवाले हैं, इसलिए जरा भी प्रमाद किए बिना तेरी भावना को सफल कर ले।'
साध्वीजी की प्रेरणा ने चन्द्रयश की भावना को और बढ़ावा दे दिया । चन्द्रयश ने राज्य नमिराजा को सौंपकर चारित्र्यधर्म अंगीकार कर लिया और आत्मसाधना के मार्ग पर चल पड़े। साध्वीजी ने वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया।
मदनरेखा की भाव करुणा ने दो आत्माओं का दुर्गति गमन रोक दिया। दो आत्माओं में सद्भावनाएँ भर दी। चन्द्रयश के जीवन का तो आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। जन्म-जन्मान्तर सुधार दिये । यदि साध्वीजी यह सोचतीं कि : 'मुझे क्या है? मैं तो साध्वी बन गई, अब मेरे पुत्र कहाँ रहे? लड़ने दो उनको, जैसे उनके कर्म होंगे... वैसा होगा।' तो क्या होता? जो होनेवाला होता वही होता, परन्तु साध्वी का हृदय कठोर बन जाता | करुणा नहीं रहती
और करुणा के बिना साधुता रहती या नहीं, क्या पता? तीर्थंकरत्व की पैदाइश करुणा में है :
आप जानते हो क्या, साधुता की जनेता करुणा है। करुणा है तो साधुता है, करुणा के अभाव में साधुता नहीं रहती। इतना ही नहीं, तीर्थंकरत्व की जनेता करुणा है। संसार के अनन्त अनन्त जीवों की दुःखपूर्ण स्थिति को देखकर अपनी ज्ञानदृष्टि से, हृदय में भरपूर करुणा प्रगटती है तब 'तीर्थंकर नामकर्म' बंधता है। इस विषय में आगे चर्चा करेंगे। आज तो मुझे आपको यह बताना है कि आप भाव करुणा की महिमा समझो। जिस प्रकार दुःखी, दीनहीन-दरिद्र के प्रति करुणा होनी चाहिए वैसे जो लोग भौतिक दृष्टि से सुखी हैं, संपन्न हैं, धन-वैभव, आरोग्य, सौभाग्य वगैरह जिनके पास हैं, वे लोग पापाचरण करते हैं, तो उनके प्रति भी करुणा चाहिए।
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