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प्रवचन-२
१५ विषय निर्देश :
जिस प्रकार मंगल किया वैसे 'अभिधेय' भी बता दिया, यानी इस ग्रंथ में वे जो लिखने जा रहे हैं उस विषय को भी बता दिया। उनका विषय है धर्म | वे धर्म के विषय में कुछ लिखना चाहते हैं। ग्रन्थ के प्रारंभ में ग्रन्थ का विषय बता देना उचित ही है। इस विषय के जो जिज्ञासु होंगे, इस विषय को जानने की जिस मनुष्य की इच्छा होगी, वे इस ग्रन्थ को पढ़ेगे, सुनेंगे। मुझे जिज्ञासा थी, इसलिए मैंने पढ़ा। आपको जिज्ञासा है, इसलिए आप इधर सुनने के लिए आए हो। जिस विषय को जानने की जिज्ञासा होती है, उस विषय पर सुनने से आनन्द होता है। तृप्ति होती है। आपको तृप्ति का अनुभव होगा | ग्रन्थकार ने इतने अच्छे ढंग से धर्म समझाया है कि अपनी जिज्ञासा संतुष्ट हो जाती है। संतुष्टि ही आनन्द है! ग्रन्थ का प्रयोजन :
अभिधेय बता कर उन्होंने प्रयोजन भी बता दिया। किसलिए उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की, एकदम स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कह दिया : जीवों पर उपकार करने के लिए! जीवों को ज्ञानप्रकाश देने के लिए! यह प्रयोजन तो तात्कालिक प्रयोजन है । अंतिम प्रयोजन है मुक्ति की प्राप्ति! निर्वाण की प्राप्ति! हाँ, कोई भी पवित्र क्रिया हो, उसका फल निर्वाण होता है। क्रिया पवित्र हो, क्रिया करनेवाले का भाव निर्मल हो-निर्वाणफल मिलेगा ही। वक्ता और श्रोता-दोनों की क्रियाएँ बोलने की और सुनने की यदि निर्मल हैं, शुद्ध हैं, तो फल निर्वाण है | आपका ध्येय और मेरा ध्येय-अंतिम ध्येय मुक्ति ही है । मैं बोलता हूँ, बोलने की क्रिया करता हूँ, मेरी यह क्रिया पवित्र आशयवाली चाहिए-मेरी वाणी से जीवों को तत्त्वबोध हो, मेरी वाणी से जीवों के आत्मभाव निर्मल हों, इस प्रकार का मेरा आशय होना चाहिए। तो मेरी यह बोलने की क्रिया निर्वाण का फल अवश्य देगी। आप लोग सुनने की क्रिया करते हो न? हाँ, सुनना भी एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। आप किस आशय से सुनते हो? कैसा आशय हो तो आपकी सुनने की क्रिया मुक्तिफलदायिनी बन सके? सोचा है कभी? सुनते हो पर सोचते नहीं! इस जिनवाणी से मुझे आत्मज्ञान हो, इस जिनवाणी के श्रवण से मेरे रागद्वेष मंद हों, कर्मों के बंधन तोड़ने का पुरुषार्थ प्रगट हो...इस आशय से सुनें तो सुनने की क्रिया मुक्ति का फल अवश्य देगी।
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