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प्रवचन- १६
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महाकवि माघ को धर्मपत्नी ने कभी पति के करुणासभर दिल को निर्दयता से तोड़ा नहीं था! अपनी गरीबी से चिंतित व परेशान होते हुए भी उसने संयम रखा था।
करुणा में से चित्तप्रसन्नता पैदा होती है। दुनिया के लोग कम से कम परमात्मभक्त एवं गुरुभक्तों के पास से तो दया व करुणा को अपेक्षा रखेंगे हो न? दुनिया को निगाहों में परमात्मतत्त्व एवं गुरुतत्त्व को प्रतिष्ठा बनाना / बढ़ाना, इसकी जिम्मेदारी भक्तों को है।
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जब पापी पापों का त्याग कर देता है तब फिर उसके प्रति द्वेष रखना या घृणा-नफरत करना अनुचित है। इससे तो उसका प्रेम आप कैसे जीत पाओगे?
पति के मन को चिंता करना पत्नी का पहला कर्तव्य है... यदि वह अपने जीवन को प्रेम-प्रसन्नता से हरा-भरा रखना चाहती है। अलबत्ता, पति को भी पत्नी को इच्छा का उतन ही आदर करना है।
प्रवचन : १६
वचनाद्यदनुष्ठानमविरूद्धाद्यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ।।
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महान ज्ञानयोगी आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्म' का स्वरूप समझा रहे हैं। मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य- भावों से निर्मल, विशुद्ध और पवित्र चित्त ही धर्म है! ऐसा ही धर्म जीवात्मा को दुर्गति में गिरने से बचा सकता है। ‘धर्म' शब्द का व्युत्पत्ति- अर्थ यही है : 'दुर्गतौ प्रपतत् प्राणिनं धारयति-इति धर्मः। दुर्गति में गिरते हुए जीवों को पकड़कर रखे उसका नाम धर्म। जीवों को दुर्गति में गिरने से बचाये वह है धर्म |
चित्तशुद्धि के बिना नहीं चलेगा :
मनुष्य का चित्त जीवद्वेष और जड़राग से भरा हो और वह बाह्य धर्मक्रियाएँ करता हो, क्या उसकी सद्गति हो सकती है ? दुर्गति- पतन से वह बच सकता