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प्रवचन-१५
२०५ दिए । मदनरेखा ने महामुनि की कृपा से जान लिया कि 'यह देव युगबाहु की आत्मा है। और पाँचवें देवलोक में उत्पन्न हुआ है।' उसको संतोष हुआ।
युगबाहु की आत्मा की कितनी उत्तमता! उपकारी के उपकार को देवलोक में जाने पर भी भुलाया नहीं! अन्यथा, देवलोक में जानेवाले लोग वहाँ के दिव्य सुखों में इतने लीन हो जाते हैं कि मनुष्यभव के स्नेहीस्वजनों को तो भूल ही जाते हैं, अपने उपकारी को भी भूल जाते हैं। आजकल तो जो देवलोक में जाते हैं, कोई इधर आता दिखता ही नहीं है। जिसने मानव-जीवन में अच्छा धर्मपुरुषार्थ किया हो और मृत्यु-समय भी अच्छी समता-समाधि रखी हो, वह प्रायः देवलोक में जाता है, ऐसा अपन मान सकते हैं, अनुमान कर सकते हैं। ऐसे जीव भी यहाँ आते हुए नहीं दिखते आजकल । देव चाहे तो आ सकते हैं। युगबाहु आया कि नहीं? अब उसको कोई चिन्ता नहीं रही। संबंध में कल्याणमैत्री को विकसित करो :
इस जीवन में संबंध बांधो तो ऐसा बांधो।, पत्नी पति की मात्र पत्नी ही नहीं रहे, कल्याणमित्र बने। पति मात्र पति ही बना रहे, इतना ही पर्याप्त नहीं, अपितु वह पत्नी का कल्याणमित्र बने! मात्र वर्तमान जीवन के ही सुख-दुःख का विचार नहीं, पारलौकिक सुख-दुःख का विचार करो | पत्नी विचार करे कि : मेरे पति का परलोक नहीं बिगड़ना चाहिए। मैं उसको ऐसा सहयोग प्रदान करूँ कि उसका जीवन धर्ममय बना रहे । इसी प्रकार पति भी पत्नी का पारलौकिक हित का विचार करता रहे। श्रेष्ठ मैत्री यही है। ऐसी मैत्री अनेक जन्मों तक
अखंडित रहती है। निर्वाण तक ऐसी मैत्री बनी रहती है। ___ मात्र पाँच इन्द्रियों के विषय-सुखों के आदान-प्रदान की मैत्री, मैत्री नहीं है। 'तुम मुझे सुख दो, मैं तुम्हें सुख दूँगा।' यह मैत्री नहीं है, सौदा है। 'तुम मुझे सुख नहीं देती तो मैं भी तुम्हें सुख नहीं दूंगा' यह मैत्री नहीं है। दुःख देनेवालों को भी सुख देने की भावना मैत्री है। सर्व जीवों के प्रति आत्मवत् स्नेह प्रदान करना, मैत्री है | मैत्री में स्नेह होता ही है। स्नेहरहित मित्रता हो ही नहीं सकती। हितचिन्तारूप स्नेह का झरना सर्व जीवों के प्रति निरंतर बहता ही रहना चाहिए।
मदनरेखा के प्रति युगबाहु की मैत्री 'उपकारी-मैत्री' कह सकते हैं। 'मेरे उपकारी के उपकारों का बदला चुकाऊँ... प्रत्युपकार करूँ...' ऐसा विचार मैत्रीभावना का द्योतक है। उपकारी के प्रति स्नेह बना रहना, एक विशिष्ट
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