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प्रवचन-१४
१८२ - क्या आपका दिल भीतर से पुकार रहा है? 'मैं औरों को कभी MM
दुःखी नहीं करूंगा; मैं दूसरों के सुख की ईर्ष्या नहीं करूंगा,E
मैं पापीजनों से नफरत नहीं करूंगा' • हिंसक दृश्यों को बार-बार देखने से दिल बड़ा सख्त हो
जाएगा। कठोरता एवं निष्ठुरता पनपने लगेगी भीतर में! ऐसे
दृश्य देखना छोड़ दो! • यदि अपने ही मन को शुद्ध बनाना है, धर्म का उद्गमस्थान बनाना है, मन को शांति और प्रसन्नता का पातालकूप बना देना है, तो सिनेमा-नाटक देखना पूरी तरह बंद कर देना! पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन में आग लगानेवाला यदि
कोई तत्त्व है तो सिनेमा! .उपकारी के प्रति भी मैत्री-भावना ही होनी जरूरी है। उपकारी
के प्रति अपने दिल में स्नेह-सद्भाव एवं आदर होना ही चाहिए।
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प्रवचन : १४
परम श्रद्धेय आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी 'धर्म' तत्त्व की परिभाषा करते हुए कहते हैं : 'धर्मानुष्ठान करनेवालों का चित्त मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यथ्य भाव से नवपल्लवित होना चाहिए | धर्म पैदा होता है शुद्ध चित्त में से! जब तक चित्त शुद्ध नहीं बनता, मनुष्य के जीवन में धर्म का आविर्भाव नहीं होता। मैत्री वगैरह भावों के दो रूप : ___ मैत्री वगैरह भाव विधेयात्मक Positive रूप से भले नहीं दिखाई दें, निषेधात्मक Negative रूप से तो होने ही चाहिए | मैत्री का विधेयात्मक रूप है दूसरे जीवों की हितचिन्ता। निषेधात्मक रूप है दूसरे जीवों का अहित नहीं करना। करुणा का विधेयात्मक रूप है दूसरे जीवों के दुःख को दूर करना। निषेधात्मक रूप है दूसरे जीवों को दुःखी नहीं करना । प्रमोद का विधेयात्मक रूप है सुखी मनुष्यों का सुख देखकर खुश होना। निषेधात्मक रूप है सुखी मनुष्यों का सुख देखकर ईर्ष्या नहीं करना । माध्यस्थ्य का विधेयात्मक रूप है
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