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प्रवचन-१२
१६९ 'रानी, तू कितनी अच्छी है। तेरी मनोकामनाएँ कितनी पवित्र हैं...तू मुझे भूल जाएगी तो चलेगा, परन्तु जिनधर्म को कभी नहीं भूलना, हृदय में स्थिर रखना | धर्म ने तेरी रक्षा की है, मैंने कुछ नहीं किया है।' पथमिणी कितनी निरभिमानी सन्नारी होगी! ब्रह्मचारिणी तो थी ही, अनेक गुणों से सुशोभित महान श्राविका थी। लीलावती के हृदय में धर्मतत्त्व की प्रतिष्ठा कर दी उसने । सब कुछ वापस मिल गया :
सात दिन गुजरते कितनी देर! सातवें दिन महामंत्री ने जाकर महाराजा को शुभ समाचार दे दिये । 'लीलावती का पता लग गया है और मेरी हवेली पर आ गई है। आप आज्ञा करें तो महल में ले आऊँ।' राजा ने कहा : 'नहीं, मैं स्वयं तुम्हारे घर पर आता हूँ।' महामंत्री खुश हो गए | महाराजा पेथड़शाह की हवेली में पधारे। पथमिणी ने आदर-सत्कार किया और लीलावती के पास ले गई। लीलावती को देखकर राजा हर्षविभोर हो गए। रानी को अनेक मूल्यवान वस्त्र दिए और ३२ लाख रूपये भेंट किए। बड़े सम्मान के साथ रानी को महल में ले आए।
लीलावती ने पार्श्वनाथ भगवंत की स्वर्णप्रतिमा बनवाई! प्रतिदिन पूजन करती है। प्रतिदिन श्री नवकार मंत्र का जाप-ध्यान करती है। अनछाना पानी नहीं पीती है, रात्रिभोजन नहीं करती है और धर्ममय जीवन व्यतीत करती है। राजा ने लीलावती को पट्टरानी बनाया। आराधना जीवंत बननी चाहिए :
लीलावती की धर्मआराधना 'यथोदितं' थी। जिस प्रकार पूजन वगैरह अनुष्ठान करने चाहिए उसी प्रकार वह प्रत्येक धर्मानुष्ठान करती थी। तो उसका अनुष्ठान, उसकी क्रिया धर्म बन गई। उस धर्म के प्रभाव से ही उसके दुःख दूर हुए, सुख मिले, कीर्ति बढ़ी और आत्मा निर्मल बनी। __ वह अनुष्ठान 'धर्म' बनता है कि जो 'यथोदितं' होता है, इस बात का अपन विस्तार से विचार कर गए, अब तीसरी बात सोचने की है कि अपना प्रत्येक अनुष्ठान मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य-भाव से युक्त होना चाहिए । इन चार भावनाओं से भावित हृदय की क्रिया ही धर्म बनती है! इस विषय में कल से विवेचन शुरू करूँगा।
आज, बस इतना ही।
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