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प्रवचन- ११
१४६
'हे विमल जिनेश्वर! आपके नयन आज मैंने देखे! देखता ही रहूँ, जीवनपर्यंत देखता रहूँ, तृप्ति नहीं होती है । शान्तरस का अमृत भरा है आपके नयनों में ! बस, पीता ही रहूँ...।'
आनन्दघनजी योगी थे न? योगी को परम योगी के साथ प्रीति होना स्वाभाविक बात है। योगी ही परमयोगी की आँखें पढ़ सकते हैं, आँखों के भाव परख सकते हैं। भोगी का परमयोगी के साथ कैसे संबंध बन सकता है? हाँ, आप लोगों को भी योगी बनना पड़ेगा, यदि परमयोगी परमात्मा से प्रीति बाँधी है । भोगी को योगी पसन्द ही नहीं आते! जिसको योगी पसन्द आते हैं वे भोगी नहीं होते। उनका हृदय भोगी नहीं होता । शरीर से भोगी और मन से योगी, ऐसे श्रावक भी होते हैं । परमात्मपंथ के पथिक योगी होते हैं! 'योगी' शब्द सुनकर डर मत जाना । 'योग' शब्द की परिभाषा समझ लो, डर निकल जाएगा दिमाग में से ।
'मोक्षेण योजनाद् योग: । '
जो हमें मोक्ष से जोड़े, मोक्षमार्ग से जोड़े, उसको योग कहते हैं । कहिए, ऐसा योग तो आपको पसन्द आएगा न? परमात्मदर्शन और परमात्म-स्तवन ऐसा योग है। दर्शन और स्तवन अपन को परमात्मतत्त्व से जोड़ते हैं। दर्शन में तल्लीनता चाहिए, स्तवन में भावलीनता चाहिए । प्रीति और भक्ति तल्लीनता एवं भावलीनता लाते हैं ।
प्रतिमा कैसी पसंद करोगे, सुंदर या चमत्कारिक ?
प्रश्न : परमात्मा की मूर्ति नयनरम्य और आकर्षक होती है तो तल्लीनता जल्दी आती है। अपने यहाँ परमात्मा की मूर्तियाँ इतनी सुन्दर क्यों नहीं होती?
उत्तर : परमात्मा की मूर्ति नयनरम्य होनी चाहिए, आकर्षक होनी चाहिए, यह बात सही है परन्तु अपन को मूर्ति तक ही सीमित नहीं रहना है। मूर्ति तो माध्यम है। उस माध्यम से अपन को परमात्मस्वरूप के ध्यान में पहुँचना है। माध्यम उत्तम होगा तो प्रवेश सरलता से हो जाएगा । दर्शन, स्तवन और पूजन का लक्ष्य परमात्मस्वरूप में पहुँचने का है क्या ? नहीं, लक्ष्य है भौतिक सुख पाने का! एक गाँव में हम गये थे, वहाँ के जिनमंदिर में जो मूर्ति थी परमात्मा की, छोटी थी और कुछ बेडौल भी थी। मैंने एक महानुभाव से पूछा : 'ऐसी
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