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प्रवचन-८
१०९ प्रेरित किया। आँखें खुलने लगीं, सामने देखा, तो दूर रोशनीवाला मकान दिखाई दिया। कान और आँख मन के सहारे वहाँ चले गए। आत्मध्यान में से मकानध्यान, संगीतध्यान लग गया!
आप लोग माला फेरते हो न? पंचपरमेष्ठि का ध्यान करते-करते तिजोरीध्यान में पहुँच जाते हो न? रसोईघर में चले जाते हो न? कैसी-कैसी विचारधाराओं में बह जाते हो? आत्मध्यान में स्थिरता पाने के लिए इन्द्रियविजय अति आवश्यक है। इन्द्रियों की चंचलता आत्मध्यान में स्थिर नहीं होने देती है। उस साध्वी का भी चित्त चंचल हो गया। जिस मकान को वह देख रही थी, वह मकान एक वेश्या का था। वेश्या मकान के झरोखे में आकर बैठी। विविध श्रृंगार से उसने अपनी काया सजाई थी। उसके आस-पास पाँच पुरुष बैठे थे। पाँचों के साथ वेश्या हास्य-विनोद कर रही थी, वे वेश्या को प्रसन्न करने के लिए विविध मोहचेष्टा कर रहे थे। साध्वी यह दृश्य एकाग्रता से देखती है। वार्तालाप की आवाज़ सुनती है और उसका मन अनेक विकल्पों के जाल रचने
लगा।
'यह स्त्री कितनी पुण्यशालिनी है। पाँच-पाँच पुरुषों का सुख उसको मिल रहा है। कितना प्यार करते हैं ये पुरुष इसे! इस स्त्री का कितना महान सौभाग्य है!
साध्वी को वह दृश्य अच्छा लगा। स्त्री-पुरुष की मोहचेष्टा उसको अच्छी लगी, प्यारी लगी। बस, मनुष्य का स्वभाव है कि उसको जो अच्छा लगता है वह पाने के लिए उसका मन लालायित हो ही जाता है। साध्वी सोचती है : ___ 'मुझे भी ऐसा सुख चाहिए...परन्तु इस जीवन में तो मुझे मिल नहीं सकता, क्योंकि मैं साध्वी हूँ, परन्तु आनेवाले जन्म में मिल सकता है। मेरी तपस्याओं के फलस्वरूप मुझे ऐसा सुख मिल सकता है। मुझे ऐसा सुख चाहिए।' तपश्चर्या का सौदा खतरनाक
साध्वी का चित्त वैषयिक भोगसुख के प्रति अत्यन्त आकृष्ट हो गया, चित्त में व्यग्रता व्याप्त हो गई। उसके चित्त में वह रोशनी से जगमगाता मकान, वह झरोखा, वह औरत, वे पाँच पुरुष, उनका रंगराग, प्रेमालाप इत्यादि छा गया बाहर से तो वह उग्र धर्मसाधना में निमग्न दिखती है। स्मशान में कायोत्सर्गध्यान करनेवाली साध्वी दूसरा ही ध्यान करने में लीन हो गई! 'यथोदितं' का उल्लंघन किया साध्वी ने! जिनाज्ञा का भंग किया । स्मशान
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