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९. श्री क्षमाकल्याण
१०. श्रीकर्मचन्द्रयति
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तर्कसङ्ग्रहफक्किका तर्कसङ्ग्रहटीका
इन कृतियों के अलावा और भी कृतियाँ अवश्य होगी परन्तु उन सबका पता जैन सम्प्रदाय के सभी भण्डारों को ठीक देखने से लग सकता हैं। सम्भव है कि कुछ कृतियाँ नष्ट भी हो गई हो ।
यद्यपि यहाँ हमारा सम्बन्ध श्रीक्षमाकल्याण की तर्क - फक्किकासे है फिर भी फक्किकाका विस्तार से परिचय पाने के पूर्व संक्षेप में उन उपलब्ध कृतियों का भी परिचय कराना उपयुक्त होगा ।
१. न्यायकन्दली - टिप्पण
श्रीनरचन्द्रसूरि का यह छोटा सा टिप्पण श्रीधर की न्यायकन्दली पर है । न्यायकन्दली प्रशस्तपादभाष्य की एक विस्तृत टीका है और प्रशस्तपादभाष्य श्रीप्रशस्तमुनि का रचा हुआ वैशेषिक दर्शन के सूत्रों के आधार पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। और भाष्यों की तरह यह व्यवस्थित रूप से वैशेषिक सूत्रों पर भाष्य नहीं है। इस भाष्य के उपर न्यायकन्दली के अलावा व्योमशिवाचार्य की व्योमवती तथा उदयनाचार्य की किरणावली ये दो टीकायें इस समय उपलब्ध हैं और वे प्रकाशित भी हुई हैं। पञ्जिकाकार श्रीराजशेखर के अनुसार श्रीवत्साचार्य की लीलावती नामकी भी एक टीका प्रशस्तपादभाष्य के ऊपर हैं, परन्तु यह टीका इस समय उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध टीकाओं में न्यायकन्दली सबसे बड़ी है। उस पर श्रीनरचन्द्रसूरि का यह टिप्पण यद्यपि केवल २५०० श्लोक प्रमाण का ही है फिर भी अच्छा प्रकाश डालता है । वैशेषिक सिद्धान्तों का इसमें प्रामाणिक निरूपण है ।
(२) न्यायालङ्कार - टिप्पण
उपाध्याय - श्री अभयतिलकविरचित यह टिप्पण न्यायसूत्र का वात्स्यायनभाष्य, भाष्य का उद्योतकरकृत न्यायवार्तिक, वार्तिक की वाचस्पतिमिश्रकृत तात्पर्यटीका, और तात्पर्यटीका की उदयनाचार्यकृत
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तात्पर्यपरिशुद्धि इन चारों पर एक साथ चलता है। यह टिप्पण करीब १२००० (बारह हजार) श्लोक प्रमाण है । यद्यपि अधिकांश में यह टिप्पण तात्पर्यपरिशुद्धि पर ही है तो भी उत्तरोत्तर न्यूनता के क्रम से तात्पर्यटीका, वार्तिक और भाष्य पर भी है। यह टिप्पण ब्राह्मण विद्वान् द्वारा रचित ऐसे ही टिप्पण का अनुगामि जान पड़ता है। श्रीकण्ठीय टिप्पण के ४७ पत्र जैसलमेर के बड़े ज्ञानभण्डार में हैं। न्यायवैशेषिक सिद्धान्तो का निरूपण इसमें भी उपाध्यायजी ने प्रामाणिकता से विशद रूप में किया है।
(३) न्यायकन्दली - पञ्जिका
षड्दर्शनसमुञ्चय के कर्ता श्रीराजशेखरसूरि की पञ्जिका डॉ. पीटर्सन ने खम्भात में श्रीकल्याणचन्द्रसूरि के भण्डार में देखी थी। डॉ. पीटर्सन के रिपोर्ट अनुसार यह प्रति संवत् १४८५ में लिखी हुई कागज की प्रति थी। इसका पूर्ण परिचय डॉ. पीटर्सन ने अपने रिपोर्ट में दिया हैं, परन्तु जांच करने से पता चला है कि इस समय खम्भात में श्रीकल्याणचन्द्रसूरि का कोई भण्डार नहीं है। श्री वेलणकरके जिनरत्नकोश के अनुसार यह कृति विमलगच्छ के उपाश्रय में होनी चाहिये । परन्तु अहमदाबाद में इस उपाश्रयस्थित ज्ञानभण्डार के कच्चे सूचीपत्र में वह निर्दिष्ट नहीं है। खम्भात से यह प्रति कहाँ चली गई और इस समय कहाँ है इसका पता लगाना जरूरी है । पञ्जिका करीब ४००० श्लोक प्रमाण है, अर्थात् श्रीनरचन्द्र के टिप्पण से बड़ी है। कन्दली के सम्पादक स्व. म. म. श्रीविन्ध्येश्वरीप्रसादजी ने भी डॉ. पीटर्सन के रिपोर्ट में दिये हुवे पञ्जिका के परिचय का उपयोग कन्दली की प्रस्तावना में किया है इससे पता चलता है कि पञ्जिका में काफी उपयुक्त सामग्री मिलने की सम्भावना है।
(४) न्यायतात्पर्य - दीपिका
श्रीजयसिंहसूरि की यह टीका भी भासर्वज्ञ के 'न्यायसार' नाम के ग्रन्थ पर है। इसे स्व. म. म. डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणजी ने सन १९१० में सम्पादित करके रॉयल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता (बङ्गाल शाखा) से