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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (99) तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - और ऊपरका दुबला जिस कर्मके उदय से हो वह स्वाति संस्थान नाम है। जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो वह कुब्जक संस्थान नाम है । जिसके उदयसे बौना शरीर हो वह वामन संस्थान नाम है। जिसके उदय से विरूप अंगोपांग हों वह हुंडक संस्थान नाम है। जिसके उदय से हड्डियों के बन्धन में विशेषता हो वह संहनन नाम है। उसके भी छह भेद हैं- वज्र वृषभ नाराच संहनन, वज्र नाराज संहनन, नाराच संहनन, अर्ध नाराच संहनन, कीलित संहनन और असंप्राप्ता सृपाटिका संहनन नाम । जिसके उदय से वृषभ यानी वेष्टन, नाराच यानी कीलें और संहनन यानी हड्डियाँ वज्रकी तरह अभेद्य हों वह वज्र वृषभ नाराच संहनन नाम है । जिसके उदय से कील और हड़ियों वजकी तरह हों और वेष्ठन सामान्य हो वह वन नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाडों के जोड़ों में कीलें हों वह नाराच संहनन नाम है । जिसके उदय से हाड़ों की सन्धियां अर्धकीलित हो वह अर्धनाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ परस्पर में ही कीलित हों अलग से कील न हो, वह कीलित संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ कवल नस, स्नायु वगैरहसे बंधे हों वह असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है। जिसके उदय से शरीर में स्पर्श प्रकट हो वह स्पर्श नाम है । उसके आठ भेद हैं- कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, स्निग्धनाम, रूक्षनाम, शीतनाम, उष्णनाम । जिसके उदयसे शरीरमें रस प्रकट हो वह रस नाम है। उसके पाँच भेद हैं- तिक्तनाम, कटुकनाम, कषायनाम, आम्लनाम, मधुरनाम । जिसके उदयसे शरीरमें गन्ध प्रकट हो वह गन्धनाम है। उसके दो भेद हैं- सुगन्धनाम और दुर्गन्धनाम । जिसके उदयसे शरीर में वर्ण यानी रंग प्रकट हो वह वर्णनाम है। उसके पाँच भेद हैं- कृष्ण वर्ण नाम, शुक्ल वर्णनाम, नील वर्णनाम, रक्तवर्ण नाम और हरित कर्म नाम है। जिसके उदयसे पूर्व शरीरका आकार बना रहे वह आनूपूर्व्य नाम कर्म है। उसके चार भेद हैं- नरक गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनामा, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, और देवगति तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - प्रायोग्यानुपूर्व्यनाम । जिस समय मनुष्य या तिर्यञ्च मर करके नरक गति की ओर जाता है तो मार्ग में उसकी आत्मा के प्रदेशों का आकार वैसा ही बना रहता है जैसा उसके पूर्व शरीरका आकार था जिसे वह छोड़कर आया है, यह नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य नाम कर्म का कार्य है। इसी तरह अन्य आनुपूर्वियों का कार्य जानना । आनपर्वी कर्मका उदय विग्रह गति में ही होता है। जिसके उदय से शरीर न तो लोहे के गोले की तरह भारी हो और न आक की रुईकी तरह हल्का हो वह अगुरुलघु नाम है । जिसके उदय से जीव स्वयं ही अपना घात कर के मर जाये वह उपघात नाम है। जिसके उदय से दूसरे के द्वारा चलाये गये शस्त्र आदि से अपना घात हो वह परघात नाम है। जिसके उदय से आतपकारी शरीर हो वह आतप नाम है। इसका उदय सूर्य के बिम्बमें जो बादर पर्याप्त पृथिवी कायिक जीव होते हैं उन्हीं के होता है। जिसके उदय से उद्योतरूप शरीर हो वह उद्योत नाम है । इसका उदय चन्द्रमाके बिम्बमें रहनेवाले जीवों के तथा जुगनु वगैरह के होता है । जिसके उदय से उछ्वास हो वह उछ्वास नाम है। विहाय यानी आकाश । आकाश में गमन जिस कर्म के उदय से होता है वह विहायोगति नाम है। हाथी बैल वगैरह की सन्दर गति के कारण कर्म को प्रशस्त विहायोगति नाम कहते हैं और ऊँट, गधे वगैरह की खराब गति के कारण कर्म को अप्रशस्त विहायोगति नाम कहते हैं। यहां ऐसा नहीं समझ लेना चाहिये कि पक्षियों की ही गति आकाशमें होती है। आकाश द्रव्य सर्वत्र है अतः सभी जीव आकाश में ही गमन करते हैं। सिद्ध जीव और पुद्गलों की गति स्वाभाविक है कर्मके उदयसे नहीं हैं। जिसके उदय से शरीर एक जीव के ही भोगने योग्य होता है वह प्रत्येक शरीर नाम है। जिसके उदयसे बहुत से जीवोंके भोगने योग्य साधारण शरीर होता है वह साधारण शरीर नाम है । अर्थात् साधारण शरीर नाम कर्म के उदय से एक शरीर में अनन्त जीव एक अवगाहना रूप होकर रहते हैं। वे सब एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक साथ ही मरते हैं और एक साथ **** * * 1730 *********
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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