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तत्त्वार्थ सूत्र **********# अध्याय - वेदनीय के सोलह भेद हैं। इस तरह मोहनीय के कुल अट्ठाईस भेद हैं ॥९॥ अब आयु कर्म के भेद कहते हैं
नारक-तेर्यग्योन-मानुष्य-दैवानि ||१०|| अर्थ-- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार आयु कर्म के भेद हैं। जिसके उदय से नरक में दीर्घकाल तक रहना पड़े वह नरकायु है। जिसके उदयसे तिर्यञ्च योनि में रहना पड़े वह तिर्यगायु है। जिसके उदय से मनुष्य पर्याय में जन्म लेना पड़े वह मनुष्यायु है और जिसके उदय से देवों में जन्म हो वह देवायु है ॥१०॥
अब नाम कर्म की प्रकृतियाँ कहते हैंगति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थानसंहनन-स्पर्श-रस-गन्ध-र्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघात-परघातातपोद्योतोच्छ्वास-विहायोगतय:प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेय-यश:कीर्ति-सेतराणि
तीर्थंकरत्वं च ||११।। अर्थ- गति, जाति, शरीर, आंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श ,रस, गन्ध, वर्ण, आनूपूळ, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति, तथा प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय यशः कीर्ति और इन दसों के प्रतिपक्षी-अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर, अपर्याप्ति, अस्थिर, अनादेय और अयश:कीर्ति, तथा तीर्थकर ये बयालीस भेद नाम कर्म के हैं। इन्हीं के अवान्तर भेदों को मिलाने से नाम कर्म के तिरानवें भेद हो जाते हैं।
विशेषार्थ- जिसके उदय से जीव दूसरे भव में जाता है उसे गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं- नरक गति, तिर्यग्गति, मनुष्य गति और देव ******* **41710 ** ****
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - गति जिसके उदय से नारक भाव हों वह नरक गति है । ऐसा ही अन्य गतियों का भी स्वरूप जानना । उन नरकादि गतियों में अव्यभिचारी समानता के आधार पर जीवोंका एकीकरण जिसके उदय से हो वह जाति नाम कर्म है। उसके पाँच भेद हैं- एकेन्द्रिय जाति नाम, दो इन्द्रिय जाति नाम, तेइन्द्रिय जाति नाम, चौइन्द्रिय जातिनाम और पञ्चेन्द्रिय जातिनाम । जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जातिनाम है। इसी तरह शेष में भी लगा लेना । जिसके उदयसे जीवके शरीर की रचना होती है वह शरीर नाम है । उसके पाँच भेद हैं औदारिक शरीर नाम, वैक्रयिक शरीर नाम, आहारक शरीर नाम, तैजस शरीर नाम और कार्मण शरीर नाम । जिसके उदयसे औदारिक शरीरकी रचना हो वह औदारिक शरीर नाम है। इस तरह शेष को भी समझ लेना। जिसके उदय से अंग उपांग का भेद प्रकट हो वह अंगोपांग नाम कर्म है। उसके तीन भेद हैं
औदारिक शरीर अंगोपांग नाम, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नाम, आहारक शरीर अंगोपांग नाम। जिसके उदयसे अंग उपांग की रचना हो वह निर्माण है। इसके दो भेद हैं- स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । निर्माण नाम कर्म जाति उदय के अनुसार चक्षु आदिकी रचना अपने अपने स्थान में तथा अपने अपने प्रमाण में करता है। शरीर नाम कर्म के उदय से ग्रहण किए हुए पुद्गलों का परस्पर में मिलन जिस कर्म के उदय से होता है वह बन्धन नाम है । जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशों का परस्पर में छिद्र रहित एकमेकपना होता है वह संयम नाम है। जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है वह संस्थान नाम है। उसके छह भेद हैं- जिसके उदयसे ऊपर, नीचे तथा मध्य में शरीर के अवयवों की समान विभाग के लिए रचना होती है उसे समचतुरस्त्र संस्थान नाम कहते हैं। जिसके उदय से नाभि के ऊपर का भाग भारी और नीचे का पतला होता है । जैसे वटका वृक्ष, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम कहते हैं। स्वाति यानी बाम्बी की तरह नाभिसे नीचेका भाग भारी
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