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(तत्वार्थ सूत्र
अध्याय) जाता है वैसे ही दोनों द्रव्य समस्त लोकाकाश में पाये जाते हैं ॥१३॥
एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ||१४||
अर्थ- पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश से लगाकर असंख्यात प्रदेशों में है अर्थात् एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश में रहता है। दो परमाणु यदि जुदे जुदे होते हैं तो दो प्रदेशों में रहते हैं और यदि परस्पर में बधे हों तो एक प्रदेश में रहते हैं। इसी तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में, अथवा संख्यात या असंख्यात प्रदेशों में रहते हैं । जैसा स्कन्ध होता है उसी के अनुसार स्थान में वह रहता है।
शंका - धर्म, अधर्म द्रव्य तो अमूर्तिक है, अतः वे एक जगह बिना किसी बाधा के रह सकते हैं। किन्तु पुद्गल द्रव्य तो मूर्तिक है अतः एक प्रदेश में अनेक मूर्तिक पुद्गल कैसे रह सकते हैं?
समाधान - जैसे प्रकाश मूर्तिक है फिर भी एक घर में अनेक दीपकों का प्रकाश रह जाता है वैसे ही सूक्ष्म परिणमन होने से लोकाकाश के एक प्रदेश में बहुत से पुद्गल परमाणु रह सकते हैं ॥१४॥ एक जीव कितनी जगह रोकता है यह बतलाते हैं
__ असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।।१७।। अर्थ- लोक के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है। अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात भाग करने पर जो एक असंख्यातवाँ भाग होता है कम से कम उस एक असंख्यातवें भागमें एक जीव रहता है, क्योंकि सबसे जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया जीवकी होती है । सो वह जीव लोकके असंख्यातवें भाग स्थान को रोकता है। यदि जीव की अवगाहना बड़ी होती है तो वह लोक के दो, तीन चार आदि असंख्यातवें भागों में रहता है यहाँ तक कि सर्वलोक तक में व्याप्त हो जाता है।
तत्त्वार्थ सूत्र ############# अध्याय -
शंका - यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है तो अनन्तानन्त जीवराशि लोकाकाश में कैसे रह सकती है?
समाधान - जीव दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म और बादर । जिनका शरीर स्थूल होता है उन्हें बादर कहते हैं । बादर जीव एक जगह बहुत से नहीं रह सकते, किन्तु सूक्ष्म शरीर वाले जीव सूक्ष्म होने से जितनी जगह में एक निगोदिया जीव रहता है उतनी जगह में साधारण कायके रूप में अनन्तानन्त रह सकते हैं; क्योंकि वे न तो किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं अतः कोई विरोध नहीं होता ॥१५॥
शंका - एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेशवाला बतलाया है। ऐसा जीव लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में कैसे रह सकता है? उसे तो समस्त लोक में व्याप्त होकर ही रहना चाहिए? सूत्रकार इस शङ्का के समाधान के लिए सूत्र कहते हैं
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।१६।। अर्थ- यद्यपि जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर हैं फिर भी दीपक की तरह प्रदेशों का संकोच विस्तार होने से जीव लोक के असंख्यातवें भाग आदि में रहता है।
विशेषार्थ - यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्तिक है फिर भी अनादि कालसे कर्मों के साथ एकमेक होने के कारण कथचित् मूर्तिक हो रहा है। अतः कर्मके वश से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उसके अनुसार ही उसके प्रदेशों का संकोच या फैलाव हो जाता है और वह उस शरीर में व्याप्त होकर रह जाता है। जैसे दीपक के छोटे या बड़े जैसे स्थान में रखा जाता है उसी रूप में उसका प्रकाश या तो फैल जाता है अथवा संकचित हो जाता है। वैसे ही आत्माके विषयमें भी जानना चहिये। किन्तु प्रदेशों का संकोच विस्तार होने पर भी प्रदेशों का परिमाण नहीं घटता बढ़ता । हर हालत में प्रदेश लोकाकाश के बराबर ही रहते हैं।
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