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(तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++ अध्याय
पुद्गल एक एक आकाश के प्रदेश में बहुत से रह सकते हैं। फिर ऐसा कोई नियम नहीं है कि छोटे से आधार में बड़ा द्रव्य नहीं रह सकता । देखो, चम्पा के फूल की कली छोटी सी होती है। जब वह खिलती है तो उसकी गन्ध सब ओर फैल जाती है अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अन्तानन्त पुदगल द्रव्य रह सकते हैं ॥ १० ॥
परमाणु के प्रदेशों के विषय कहते हैं
नाणो: ||99||
अर्थ - परमाणु के प्रदेश नहीं होते; क्योंकि परमाणु एक प्रदेशी ही है। जैसे आकाश के एक प्रदेश के और विभाग न हो सकने से वह अप्रदेशी है वैसे ही परमाणु भी एक प्रदेशी ही है अतः उसके दो तीन आदि प्रदेश नहीं होते । तथा पुद्गल के सब से छोटे अंश को जिसका दूसरा विभाग नही हो सकता, परमाणु कहते हैं। अत: परमाणु से छोटा यदि कोई द्रव्य होता तो उसके प्रदेश हो सकते थे किन्तु उससे छोटा कोई द्रव्य है नहीं । इससे परमाणु एक प्रदेशी ही है।
धर्मादिक द्रव्य कहाँ रहते हैं, सो बतलाते हैं -
लोकाकाशेऽवगाहः ||१२||
अर्थ - धर्म आदि द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं। आशय यह है कि आकाश तो सर्वत्र है। उसके बीच के जितने भाग में धर्म आदि छहों द्रव्य पाये जाते हैं उतने भाग को लोकाकाश कहते हैं। और उसके बाहर सब ओर जो आकाश है उसे अलोकाकाश कहते हैं। धर्मादि द्रव्य लोकाकाश मे ही पाये जाते हैं, बाहर नहीं ।
शंका - यदि धर्मादि द्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाश का आधार क्या है ?
समाधान- आकाश का आधार अन्य कोई नहीं है वह अपने ही
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तत्त्वार्थ सूत्र + + +अध्याय आधार है।
शंका- यदि आकाश अपने आधार से है तो धर्मादि द्रव्यों को भी अपने ही आधार पर होना चाहिये । यदि धर्मादि से द्रव्यों का आधार कोई अन्य द्रव्य है तो आकाश का भी दूसरा आधार होना चाहिये ?
समाधान- आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है जिसके आधार आकाश रह सके । आकाश तो सब ओर अनन्त है उसका कहीं अन्त ही नहीं है। तथा निश्चय नय से सभी द्रव्य अपने आधार हैं कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य के आधार नहीं है। किन्तु व्यवहार नय से धर्मादि द्रव्यों का आधार आकाश को कहा जाता है, क्योकि धर्मादि द्रव्य लोकाकाश से बाहर नहीं पाये जाते ।
शंका- लोक में जो पूर्वोत्तरकाल- भावी होते हैं उन्हीं में आधारआधेयपना देखा जाता है। जैसे मकान पहले बन जाता है तो पीछे उसमें मनुष्य आकर बसते हैं । किन्तु इस तरह आकाश पहले से है और धर्मादि द्रव्य उसमें बाद को आये हैं ऐसी बात तो आप मानते नहीं । ऐसी स्थिति में व्यवहार नय से भी आधार - आधेयपना नहीं बन सकता ?
समाधान आपकी आपत्ति ठीक नहीं है। जो एक साथ होते हैं उनमें भी आधार आधेयपना देखा जाता है। जैसे शरीर और हाथ एक साथ ही बनते हैं फिर भी "शरीर में हाथ है" ऐसा कहा जाता है। इसी तरह यद्यपि सभी द्रव्य अनादि हैं फिर भी आकाश में धर्मादि द्रव्य है ऐसा व्यवहार होने में कोई दोष नहीं है ॥ १२ ॥
कौन द्रव्य कितने लोकाकाश में रहता है? यह बतलाते हैं
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ||१३||
अर्थ - धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। अर्थात् जैसे मकान के एक कोने में घड़ा रखा रहता है उस तरह से धर्मअधर्म द्रव्य लोकाकाश में नहीं रहते । किन्तु जैसे तिलों में सर्वत्र तेल पाया
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