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(तत्वार्थ सूत्र ********* **** अध्याय - संपदा वगैरह घटती और बढ़ती रहती हैं । उत्सर्पिणी में दिनोंदिन बढ़ती है, अवसर्पिणी में दिनोंदिन घटती है।
विशेषार्थ- सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषमा दुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छह भेद अवसर्पिणी काल के हैं । और दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सषमासुषमा ये छह भेद उत्सर्पिणी काल के हैं । अवसर्पिणी का प्रमाण दस कोड़ा-कोड़ी सागर है । इतना ही प्रमाण उत्सर्पिणी काल का है। इन दोनों कालों का एक कल्प काल होता है। सुषमा-सुषमा का प्रमाण चार कोड़ा कोड़ी सागर है। इसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा उत्तरकुरु भोग भूमि के मनुष्यों के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते होते दूसरा सुषमा काल आता है वह तीन कोड़ाकोड़ी सागर तक रहता है । उसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा हरिवर्ष भोगभूमि के समान रहती है । फिर क्रम से हानि होते होते तीसरा सुषमा-दुषमा काल आता है। यह काल दो कोड़ाकोड़ी सागर तक रहता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्यों की दशा हैमवत क्षेत्र भोग भूमि के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते होते चौथा दुषमा-सुषमा काल आता है। यह काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोडी सागर तक रहता है। उसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा विदेह क्षेत्र के मनुष्यों के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते होते पांचवां दुषमाकाल आता है जो इक्कीस हजार वर्ष तक रहता है। यह इस समय चल रहा है । इसके बाद छठा दुषमा-दुषमा काल आता है । यह भी इक्कीस हजार वर्ष रहता है । इस छठे काल के अन्त में भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्ड में प्रलय काल आता है। इसमें वायु और वर्षा के वेग से पहाड़ तक चूर चूर हो जाते हैं। मनुष्य मर जाते हैं। बहुत से मनुष्य-युगल पर्वतों की कन्दराओं में छिप कर अपनी रक्षा कर लेते हैं । विष और आग की वर्षा से एक योजन नीचे तक भूमि चूर्ण हो जाती है । उसके बाद उत्सर्पिणी काल आता है। उसके आरम्भ में सात सप्ताह तक सवष्टि होती
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - है। उससे पृथ्वी की गर्मी शान्त हो जाती है और लता वृक्ष वगैरह उगने लगते हैं । तब इधर उधर छिपे हुए मनुष्य युगल अपने अपने स्थानों से निकल कर पृथ्वी पर बसने लगते हैं। इस तरह उत्सर्पिणी का प्रथम अतिदुषमा काल बीत जाने पर दूसरा दुषमा काल आ जाता है। इस काल के बीस हजार वर्ष बीतने पर जब एक हजार वर्ष शेष रहते हैं तो कुलकर पैदा होते हैं जो मनुष्यों को कुलाचार की तथा खाना पकाने वगैरह की शिक्षा देते हैं। इसके बाद तीसरा दुषमा सुषमा काल आता है। इसमें तीर्थंकर वगैरह उत्पन्न होते हैं। इसके बाद उत्सर्पिणी के चौथे काल में जघन्य भोगभूमि, पाँचवें में मध्यम भोग भूमि और छठे में उत्कृष्ट भोगभूमि रहती है। उत्सर्पिणी काल समाप्त होने पर पुनः अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो जाता है। उसके प्रथम काल में उत्कृष्ट भोग भूमि, दूसरे में मध्यम भोग भूमि तथा तीसरे में जघन्य भोग भूमि रहती है। और चौथ से कर्म-भूमि प्रारम्भ हो जाती है ।। २७॥ आगे शेष क्षेत्रों की दशा बतलाते हैं
ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ||२८|| अर्थ- भरत और ऐरावत के सिवा अन्य क्षेत्र अवस्थित हैं । उनमें सदा एक सी ही दशा रहती है; हानि-वृद्धि नहीं होती ॥ २८ ॥ इन क्षेत्रों के मनुष्यों की आयु बतलाते हैं
एक-द्धि-त्रि-पल्योपम-स्थितयो हैमवतक-हारिवर्षकदैवकुरवका:||१९|| अर्थ- हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों की आयु एक पल्य की है। हरि वर्ष क्षेत्र के मनुष्यों की आयु दो पल्य की है।और देवकुरु के मनुष्यों की आयु तीन पल्य की है।
विशेषार्थ - इन तीनों क्षेत्रों में सदा भोगभूमि रहती है । भोगभूमि