SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (121) तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय -D तत्त्वार्थ सूत्र * *********अध्याय - को ग्रहण करता है उसे भूत-प्रज्ञापन नय कहते हैं । जैसे व्यवहार नय । क्षेत्र में इस बात का विचार किया जाता है कि मुक्त जीव की मुक्ति किस क्षेत्र से हुई । प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा से सिद्धि क्षेत्र में, अपने आत्म प्रदेशों में अथवा जिस आकाश प्रदेशों में मुक्त होनेवाला जीव मुक्तिसे पूर्व स्थित था । उन आकाश प्रदेशों में मुक्ति होती है। भूत प्रज्ञापन नय की अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमियों में उत्पन्न हुआ मनुष्य ही मुक्ति प्राप्त करता है। किन्तु पन्द्रह कर्म भूमियों में से किसी भी कर्मभूमि के मनुष्य को यदि कोई हर कर ले जाये तो समस्त मनुष्य लोक के किसी भी स्थान से उसकी मुक्त हो सकती है। काल की अपेक्षा यह विचार किया जाता हैं कि किस काल में मुक्ति हुई- सो प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा तो एक समय में ही मुक्ति होती है। और भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा सामान्य से तो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों ही कालों में मुक्ति होती है; विशेष से अवसर्पिणी काल के सुखमादुखमा नामक तीसरे काल के अन्त में जन्मे जीव और दुषमा-सषमा नामक चौथे काल में जन्मे जीव मोक्ष जाते हैं। गति में यह विचार किया जाता है कि किस गति से मुक्ति हुई ? सो प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा तो सिद्धि गति में ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा मनुष्य गति से ही मुक्ति मिलती है। लिंगमें विचार किया जाता है कि किस लिंग से मुक्ति हुई ? सो प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा तो वेद रहित अवस्था में ही मुक्ति होती है । भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा तीनों ही भाव वेदों से मुक्ति होती है, किन्त द्रव्य से पुल्लिंग ही होना चाहिये । अथवा प्रत्युत्पन्न नयसे निग्रर्थ लिंगसे ही मुक्ति मिलती है और भूतप्रज्ञापन नयसे संग्रंथ लिंगसे भी मुक्ति होती है। तीर्थका विचार करते हैं, कोई तो तीर्थकर होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। कोई सामान्य केवली होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उनमें भी कोई तीर्थंकर के विद्यमान रहते हुए मोक्ष जाते हैं, कोई तीर्थकर के अभाव में मोक्ष जाते हैं । किस चारित्र से मुक्ति मिलती हैं ? प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा तो जिस भावसे मुक्ति होती है उस भाव को न तो चारित्र भी कहा जा सकता है और न अचारित्र ही कहा जा सकता है। भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा अव्यवहित रूपसे तो यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है और व्यवहित रूप से सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है। जिनके परिहार विशुद्धि चारित्र भी होता है उनको पाँचों ही चारित्रों से मोक्ष प्राप्त होता है। जो अपनी शक्तिसे ही ज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हें प्रत्येक बुद्ध कहते हैं और जो परके उपदेश से ज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हें बोधित बुद्ध कहते हैं । सो कोई प्रत्येक बुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं और कोई बोधित बुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । किस ज्ञानसे मुक्ति होती है? प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा तो केवलज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होती है । और भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा किन्हीं को मतिज्ञान और श्रुतज्ञानपूर्वक केवल ज्ञान होता है और किन्हीं को मति, श्रुत और अवधिज्ञानपूर्वक केवलज्ञान होता है। किन्हीं को मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्याय ज्ञान पूर्वक केवलज्ञान बोता है तब मोक्ष जाते हैं । आत्मप्रदेशों के फैलाव का नाम अवगाहना है। उत्कृष्ट अवगाहना पाँचसौ पच्चीस धनुष होती है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होती है। मध्यम अवगाहना के बहुत से भेद हैं । भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा से इन अवगाहनों में से किसी एक अवगाहना से मुक्ति प्राप्त होती है और प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा इससे कुछ कम अवगाहना से मुक्ति होती है; क्योंकि मुक्त जीवकी अवगाहना उसके अन्तिम शरीर से कुछ कम होती है । अन्तर मुक्ति प्राप्त करनेवाले जीव लगातार भी मुक्ति प्राप्त करते हैं और बीच बीच में अन्तर दे देकर भी मुक्ति प्राप्त करते हैं। यदि जीव लगातार मोक्ष जायें तो कम से कम दो समय तक और अधिक से अधिक आठ समय तक मुक्त होते रहते हैं। इसके बाद अन्तर पड जाता है। सो यदि कोई भी जीव मुक्त न हो तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह माह का अन्तर पड़ता है। संख्या एक समय में से कमसे कम एक जीव मक्त होता है और अधिक से अधिक १०८ जीव मुक्त होते हैं। अल्पबहुत्व ********* *210 *** ** *23*****#2180 *** ****
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy