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(तत्त्वार्थ सूत्र **************** अध्याय - आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्धिप्रयोगाय स्मृतिसमन्चाहारः ||३०||
अर्थ- विष, कांटा, शत्रु, आदि अप्रिय वस्तुओं का समागम होने पर उनसे अपना पीछा छुड़ाने के लिए बार बार चिन्तवन करना अनिष्ट संयोग नामक आत ध्यान है ॥३०॥ दूसरा भेद कहते हैं
विपरीतं मनोज्ञस्य ||३१|| अर्थ- पुत्र, धन, स्त्री, आदि प्रिय वस्तुओं का वियोग हो जाने पर उनसे मिलन होने का बार बार चिन्तन करना इष्ट वियोग नामक आर्तध्यान है ॥३१॥ तीसरा भेद कहते हैं
वेदनायाश्च ||३|| अर्थ-वात आदि के विकार शरीर मे कष्ट होने पर रात दिन उसी की चिन्ता करना वेदना नामक आर्तध्यान है ॥३२॥
निदानं च ||३३|| अर्थ- भोगों की तृष्णा से पीड़ित होकर रात दिन आगामी भोगों को प्राप्त करने की ही चिन्ता करते रहना निदान आर्तध्यान है। इस तरह आर्तध्यान के चार भेद हैं ॥३३॥ अब, आर्तध्यान किसको होता है, यह बतलाते हैंतदविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयतानाम् ||३४।।
अर्थ- वह आर्तध्यान अविरत यानि पहले, दूसरे, तीसरे, और चतुर्थ गुणस्थान वालों के, देश विरत श्रावकों के और प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के होता है। परन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले मुनियों के निदान नहीं होता । बाकी के तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय से जब कभी
(तत्त्वार्थ सूत्र **** ********अध्याय -D हो जाते हैं ॥३४॥ अब रौद्रध्यान के भेद और उनके स्वामियो को बताते हैंहिंसाऽनृत-स्तेय-विषय संरक्षणेभ्यो
रोद्रमविरत-देशविरतयोः ॥३७।। अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह संचय करने की चिन्ता करते रहने से रौद्रध्यान होता है । यह रौद्रध्यान पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान वालों के तथा देश विरत श्रावको के होता है। किन्तु संयमी मुनि के नहीं होता; क्योंकि यदि कदाचित मुनि को भी रौद्रध्यान हो जाये तो फिर वे संयम से भ्रष्ट समझे जायेंगे।
शंका - जो व्रती नहीं है उनके रौद्रध्यान भले ही हो, किन्तु देशव्रती श्रावक के कैसे हो सकता है?
समाधान - श्रावक पर अपने धर्मायतनों की रक्षा का भार है, स्त्री, धन वगैरह की रक्षा करना उसे अभीष्ट है, अतः इनकी रक्षा के लिए जब कभी हिंसा के आवेश में आ जाने से रौद्रध्यान हो सकता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसके ऐसा रौद्रध्यान नहीं होता जो उसको नरक में ले जाये ॥३५॥
अब धर्म ध्यान का स्वरूप बतलाते हैंआज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यम् ||३६।।
अर्थ- आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय, ये धर्म ध्यान के चार भेद हैं। अच्छे उपदेष्टा के न होने से, अपनी बुद्धि के मन्द होने से और पदार्थ के सूक्ष्म होने से जब युक्ति और उदाहरण की गति न हो तो ऐसी अवस्था में सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे गये आगम को प्रमाण मानकर गहन पदार्थ का श्रद्धान कर लेना कि यह ऐसा ही है, आज्ञा विचय है । अथवा स्वयं तत्त्वों का जानकार होते हुए भी
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