________________
D:\VIPUL\BOO1. PM65 (112)
तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++++++ अध्याय स्वाध्याय के भेद हैं। धर्म के इच्छुक विनयशील पात्रों को शास्त्र देना, शास्त्र का अर्थ बतलाना तथा शास्त्र भी देना और उसका अर्थ भी बतलाना वाचना है। संशय को दूर करने के लिये अथवा निश्चय करने के लिए विशिष्ट ज्ञानियों से प्रश्न करना पृच्छना है। जाने हुए अर्थ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका बार-बार विचार करना अनुप्रेक्षा है । शुद्धता पूर्वक पाठ कराना आम्नाय है। धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश है। इस तरह स्वाध्याय के पाँच भेद हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञान बढ़ता है, वैराग्य बढ़ता है, तप बढ़ता है, व्रतों में अतिचार नहीं लगने पाता तथा स्वाध्याय से बढ़कर दूसरा कोई सरल उपाय मन को स्थिर करने का नहीं है । अतः स्वाध्याय करना हितकर है ॥२५॥
अब व्युत्सर्ग तप के भेद कहते हैं
बाह्याभ्यन्तरोपध्यो : ||२६||
अर्थ - त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। उसके दो भेद हैं- बाह्य उपि त्याग और अभ्यन्तर उपाधि त्याग । आत्मा से जुदे धनधान्य वगैरह का त्याग करना बाह्य उपधि त्याग है और क्रोध, मान, माया आदि भावों का त्याग करना अभ्यन्तर उपधि त्याग है। कुछ समय के लिए अथवा जीवन भरके लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना भी अभ्यन्तरोपधि त्याग ही कहा जाता है । इसके करने से मनुष्य निर्भय हो जाता है, वह हल्कापन अनुभव करता है तथा फिर जीवन की तृष्णा उसे नहीं सताती ॥ २६ ॥ अब ध्यान का वर्णन करते हैं
उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो ध्यानान्तर्मुहूर्तात्
112611
अर्थ - उत्तम संहनन के धारक मनुष्य का अपने चित की वृति को सब ओर से रोककर एक ही विषय मे लगाना ध्यान है यह ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है ।
****++++++199 +++++++
तत्त्वार्थ सूत्र + + +अध्याय
विशेषार्थ - आदि के तीन संहनन उत्तम हैं। वे ही ध्यान के कारण हैं। किन्तु उनमें से मोक्ष का कारण एक वज्रवृषभ नाराच संहनन ही है। अन्य संहनन वाले का मन अन्तर्मुहूर्त भी एकाग्र नही रह सकता ।
शंका- यदि ध्यान अन्तमुहुर्त तक ही हो सकता है तो आदिनाथ भगवान ने छह मास तक ध्यान कैसे किया?
समाधान- ध्यान की सन्तान को भी ध्यान कहते है । अतः एक विषय में लगाकर ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है। उसके बाद ध्येय बदल जाता है । और ध्यान की सन्तान चलती रहती है । अस्तु ।
इस सूत्र मे तीन बातें बतलायी हैं- ध्याता, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का काल । सो उत्तम संहनन का धारी पुरुष तो ध्याता हो सकता है। एक पदार्थ को लेकर उसी में चित को स्थिर कर देना ध्यान है। जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं तब वह विचार ज्ञान कहलाता है। जब वह ज्ञान एक ही विषय में स्थिर हो जाता है तब उसे ही ध्यान कहते हैं। उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त होता है ॥२७॥ अब ध्यान के भेद कहते हैं
आर्त- रौद्र-धर्म्य - शुक्लानि ||२८||
अर्थ - ध्यान के चार भेद होते हैं- आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें से आदि के दो ध्यान अशुभ हैं, उनसे पाप का बन्ध होता है। शेष दो ध्यान शुभ हैं, उनके द्वारा कर्मों का नाश होता है ॥२८॥ यही बात कहते हैं
परे मोक्षहेतू ||२९||
अर्थ - अन्त के धर्म्य और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं। इससे यह मतलब निकला कि आदि के आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं ।। २९ ॥
अब आर्त ध्यान के भेद और उनके लक्षण कहते हैं
**********200+++++++