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सेवा - परोपकार
ध्यान नहीं देता और बाहर के लोगों की सेवा में वह पड़ा हुआ है, वह समाजसेवा कहलाती है। और ये अन्य तो खुद के आंतरिक भाव कहलाते हैं। वे भाव तो खुद को आते ही रहते हैं। किसी पर दया आए, किसी के प्रति भावनाएँ होती है और ऐसा सभी तो खुद की प्रकृति में लाया होता है, पर अंत में यह सब प्रकृति धर्म ही है। वह समाजसेवा भी प्रकृति धर्म है, उसे प्रकृति स्वभाव कहते हैं कि इसका स्वभाव ऐसा है, उसका स्वभाव ऐसा है। किसी का दुःख देने का स्वभाव होता है, किसी का सुख देने का स्वभाव होता है। इन दोनों के स्वभाव प्रकृति स्वभाव कहलाते है, आत्म स्वभाव नहीं । प्रकृति में जैसा माल भरा हुआ है, वैसा उनका माल निकलता है।
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सेवा - कुसेवा, प्राकृत स्वभाव
यह आप जो सेवा करते हो, वह प्रकृति स्वभाव है और एक मनुष्य कुसेवा करता है, वह भी प्रकृति स्वभाव है। इसमें आपका पुरुषार्थ नहीं है और उसका भी पुरुषार्थ नहीं है, पर मन से ऐसा मानते हैं कि मैं करता हूँ। अब 'मैं करता हूँ' यही भ्रांति है। यहाँ यह 'ज्ञान' देने के बाद भी आप सेवा तो करनेवाले ही हैं क्योंकि प्रकृति ऐसी लाए हैं, पर वह सेवा फिर शुद्ध सेवा होगी। अभी शुभ सेवा हो रही है। शुभ सेवा अर्थात् बंधनवाली सेवा, सोने की बेड़ी भी बंधन ही है न! आत्मज्ञान के बाद सामनेवाले मनुष्य को चाहे कुछ भी हो, पर आपको दुःख होता नहीं और उसका दुःख दूर होता है। फिर आपको करुणा रहेगी। ये अभी तो आपको दया रहती है कि बेचारे को कितना दुःख होता होगा? कितना दुःख होता होगा? उसकी आपको दया रहती है। वह दया हमेशा हमें दुःख देती है। दया हो, वहाँ अहंकार होता ही है। दया के भाव के बिना प्रकृति सेवा करती ही नहीं और आत्मज्ञान के बाद आपको करुणा भाव रहेगा।'
सेवाभाव का फल भौतिक सुख हैं और कुसेवाभाव का फल
सेवा - परोपकार
भौतिक दुःख हैं। सेवा भाव से खुद का 'मैं' नहीं मिलता। पर जब तक 'मैं' न मिले, तब तक ओब्लाइजिंग नेचर रखना ।
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सच्चा समाज सेवक
आप किस की मदद करते हो?
प्रश्नकर्ता: समाज की सेवा में बहुत समय देता हूँ ।
दादाश्री : समाजसेवा तो कई प्रकार की होती है। जिस समाजसेवा में, जिसमें किचिंत् मात्र 'समाजसेवक हूँ' ऐसा भान नहीं रहे न, वह समाजसेवा सच्ची ।
प्रश्नकर्ता: वह बात ठीक है ।
दादाश्री : बाकी, समाजसेवक तो जगह-जगह पर हरएक विभाग में दो-दो, चार-चार होते हैं। सफेद टोपी डालकर घूमते रहते हैं, समाजसेवक हूँ। पर वह भान भूल जाए, तब वह सच्चा सेवक !
प्रश्नकर्ता : कुछ अच्छा काम करें, तो भीतर अहम् आ जाता है कि मैंने किया।
दादाश्री : वह तो आ जाता है।
प्रश्नकर्ता: तो उसे भुलाने के लिए क्या करना ?
दादाश्री : पर यह, समाजसेवक हूँ, उसका अहंकार नहीं आना चाहिए। अच्छा काम करता है, तो उसका अहंकार आता है, तो फिर आपके ईष्टदेव या भगवान को जिन्हें मानते हों, उनसे कहना कि हे भगवान, मुझे अहंकार नहीं करना है, फिर भी हो जाता है, मुझे क्षमा करना ! इतना ही करना होगा इतना ?
प्रश्नकर्ता : होगा ।