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सेवा-परोपकार
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सेवा-परोपकार
जाती है न! तो हमसे सुगंध ही नहीं फैलेगी क्या?
ऐसा क्यों हो हमें? मैं तो पच्चीस-तीस वर्ष की उम्र में भी अहंकार करता था और वह भी विचित्र प्रकार का अहंकार करता था। यह व्यक्ति मुझसे मिले और उसको लाभ नहीं हो तो मेरा मिलना गलत था। इसलिए हरएक मनुष्य को मुझसे लाभ प्राप्त हुआ था। मैं मिला और यदि उसको लाभ नहीं हुआ तो किस काम का? आम का पेड़ क्या कहता है कि मुझसे मिला और आम का मौसम हो और यदि सामनेवाले को लाभ नहीं हुआ तो मैं आम ही नहीं। भले ही छोटा हो तो छोटा, तझे ठीक लगे वैसा, पर तुझे उसका लाभ तो होगा न। वह आम का पेड़ कोई लाभ नहीं उठाता है। ऐसे कुछ विचार तो होने चाहिए न। यह ऐसा मनुष्यपन क्यों होना चाहिए? ऐसा समझाएँ, तो सब समझदार हैं फिर। यह तो समझ में आ गया, उसने ऐसा किया, चल पड़ी गाड़ी। आपको क्या लगता है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, आप बात करते हैं, ऐसी महाजन की संस्था हर जगह थी।
उसकी स्थिति देखकर आपको भीतर दु:ख होता है और उस दु:ख को मिटाने के लिए आप यह सब सेवा करते है। अर्थात् यह सब खुद का दःख मिटाने के लिए है। एक मनुष्य को दया बहत आती है। वह कहता है कि मैंने दया करके इन लोगों को यह दे दिया, वह दे दिया.... नहीं, अरे. तेरा दःख मिटाने के लिए इन लोगों को तू देता है। आपको समझ में आई यह बात? बहुत गहन बात है यह, सतही बात नहीं है यह। खुद के दुःख को मिटाने के लिए देता है। पर वह चीज अच्छी है। किसी को दोगे तो आप पाओगे फिर।
प्रश्नकर्ता : पर जनता जनार्दन की सेवा वही भगवत सेवा है या फिर अमूर्त को मूर्त रूप देकर पूजा करना, वह?
दादाश्री : जनता जनार्दन की सेवा करने पर हमें संसार के सभी सुख मिलते हैं, भौतिक सुख, और धीरे-धीरे, स्टेप बाय स्टेप, मोक्ष की तरफ जाते हैं। पर वह हरएक अवतार में ऐसा नहीं होता है। किसी ही अवतार में संयोग मिल जाता है। बाकी, हरएक अवतार में होता नहीं, इसलिए वह सिद्धांत रूप नहीं है।
...कल्याण की श्रेणियाँ ही भिन्न समाज कल्याण करते हैं, वह कुछ जगत् का कल्याण किया नहीं कहलाएगा। वह तो एक सांसारिक भाव है। वह सब समाज कल्याण कहलाता है। वह जितना, जिससे हो पाए उतना करते हैं, वह सब स्थूल भाषा कहलाती है, और जगत् कल्याण करना, वह तो सक्ष्म भाषा. सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भाषा है। खाली ऐसे सक्ष्मतम भाव ही होते हैं अथवा उसके छींटे ही होते हैं।
समाजसेवा प्रकृति स्वभाव समाजसेवा की तो जिसे धुन लगी है, इसलिए वह घर में बहुत
दादाश्री : पर अभी तो वे भी मुसीबत में पड़े हैं न! अर्थात् किसी का दोष नहीं है। होना था सो हो गया, पर अब ऐसा विचारों से सुधारें तो अब भी सुधर सकता है और बिगड़े हुए को सुधारना, उसीका नाम ही धर्म है। सुधरे हुए को तो सुधारने तैयार होते ही हैं सभी, पर बिगड़ा उसे सुधारना, वह धर्म कहलाता है।
मानवसेवा ही प्रभुसेवा
प्रश्नकर्ता : मानवसेवा, वह तो प्रभुसेवा है न?
दादाश्री : नहीं, प्रभुसेवा नहीं। दूसरों की सेवा कब करते हैं? खुद को भीतर दुःख होता है। आपको किसी मनुष्य पर दया आए, तब